ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
आ नू॒नम॑श्विना यु॒वं व॒त्सस्य॑ गन्त॒मव॑से । प्रास्मै॑ यच्छतमवृ॒कं पृ॒थु च्छ॒र्दिर्यु॑यु॒तं या अरा॑तयः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नू॒नम् । अ॒श्वि॒ना॒ । यु॒वम् । व॒त्सस्य॑ । ग॒न्त॒म् । अव॑से । प्र । अस्मै॑ । य॒च्छ॒त॒म् । अ॒वृ॒कम् । पृ॒थु । छ॒र्दिः । यु॒यु॒तम् । याः । अरा॑तयः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नूनमश्विना युवं वत्सस्य गन्तमवसे । प्रास्मै यच्छतमवृकं पृथु च्छर्दिर्युयुतं या अरातयः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नूनम् । अश्विना । युवम् । वत्सस्य । गन्तम् । अवसे । प्र । अस्मै । यच्छतम् । अवृकम् । पृथु । छर्दिः । युयुतम् । याः । अरातयः ॥ ८.९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
विषय - अनाथ और मातापितृविहीन बालकों के निमित्त राजाओं को उचित है कि बाधकरहित, विस्तीर्ण गृह बनवावें, यह राजकर्त्तव्य का उपदेश इससे करते हैं ।
पदार्थ -
(अश्विना) हे अश्वयुक्त राजा और राज्ञी ! (युवम्) आप दोनों ही (वत्सस्य) कृपापात्र अनाथ बालकों की (अवसे) रक्षा के लिये (नूनम्) अवश्य ही (आ+गन्तम्) आइये अर्थात् आप स्वगृह को भी त्याग अनाथों की रक्षा के लिये इतस्ततः स्वपत्नी के साथ जाया करें और आकर (अस्मै) इन अनाथ शिशुओं के लिये (अवृकम्) बाधकरहित दुष्टविवर्जित (पृथु) विस्तीर्ण (छर्दिः) गृह (प्र+यच्छतम्) निर्माण कर देवें और वहाँ (याः) जो (अरातयः) अदानशील शत्रुभूत प्रजाएँ हों, तो वहाँ से उन्हें (युयुतम्) पृथक् कर देवें । क्योंकि वहाँ अदानी के रहने से उन अनाथ शिशुओं की रक्षा न होगी ॥१ ॥
भावार्थ - राजा को उचित है कि वे अनाथ शिशुओं की रक्षा करें ॥१ ॥
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