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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 34/ मन्त्र 3
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त

    अ॑र॒सं कृ॒त्रिमं॑ ना॒दम॑रसाः स॒प्त विस्र॑सः। अपे॒तो ज॑ङ्गि॒डाम॑ति॒मिषु॒मस्ते॑व शातय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒र॒सम्। कृ॒त्रिम॑म्। ना॒दम्। अ॒र॒साः। स॒प्त। विऽस्र॑सः। अप॑। इ॒तः। ज॒ङ्गि॒डः॒। अम॑तिम्। इषु॑म्। अस्ता॑ऽइव। शा॒त॒य॒ ॥३४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अरसं कृत्रिमं नादमरसाः सप्त विस्रसः। अपेतो जङ्गिडामतिमिषुमस्तेव शातय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अरसम्। कृत्रिमम्। नादम्। अरसाः। सप्त। विऽस्रसः। अप। इतः। जङ्गिडः। अमतिम्। इषुम्। अस्ताऽइव। शातय ॥३४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 3

    Translation -
    whatsoever are these fifty three kinds of covetous inclinations, whatever are these hundred wounding forces let this Jangida quell them with its vigor and make them ineffectual.

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