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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
इ॒दमु॒च्छ्रेयो॑ऽव॒सान॒मागां॑ शि॒वे मे॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॑भूताम्। अ॑सप॒त्नाः प्र॒दिशो॑ मे भवन्तु॒ न वै त्वा॑ द्विष्मो॒ अभ॑यं नो अस्तु ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम्। उ॒त्ऽश्रेयः॑। अ॒व॒ऽसान॑म्। आ। अ॒गा॒म्। शि॒वे इति॑। मे॒। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। अ॒भू॒ता॒म्। अ॒स॒प॒त्नाः। प्र॒ऽदिशः॑। मे॒। भ॒व॒न्तु॒। न। वै। त्वा॒। द्वि॒ष्मः॒। अभ॑यम्। नः॒। अ॒स्तु॒ ॥१४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इदमुच्छ्रेयोऽवसानमागां शिवे मे द्यावापृथिवी अभूताम्। असपत्नाः प्रदिशो मे भवन्तु न वै त्वा द्विष्मो अभयं नो अस्तु ॥
स्वर रहित पद पाठइदम्। उत्ऽश्रेयः। अवऽसानम्। आ। अगाम्। शिवे इति। मे। द्यावापृथिवी इति। अभूताम्। असपत्नाः। प्रऽदिशः। मे। भवन्तु। न। वै। त्वा। द्विष्मः। अभयम्। नः। अस्तु ॥१४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(इदम्) इस (उत् श्रेयः) उत्कृष्ट श्रेयस्कर (अवसानम्) युद्ध-समाप्ति को (आगाम्) मैं प्राप्त हुआ हूँ। (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक (मे) मेरे लिये (शिवे) सुखकारी और कल्याणकारी (अभूताम्) हुए हैं। (प्रदिशः) दिशाएं और उपदिशाएं, परमेश्वरीय कृपा से (मे) मेरे लिये (असपत्नाः) शत्रुरहित (भवन्तु) हो जायें। हे परराष्ट्र के मुखिया! (वै) निश्चय है कि (त्वा) आप के साथ (न द्विष्मः) हम कोई द्वेषभावना नहीं रखते। (नः) हम सब के लिये (अभयम्) अभय (अस्तु) हो।
टिप्पणी -
[सूक्त १३, मन्त्र ११ के पश्चात विजयी राजा विजित राजा को आश्वासन देता है कि इस युद्ध के उपरान्त हमारा कोई द्वेष आपके प्रति नहीं रहा। अब हम सब के लिये भय की कोई आशंका नहीं रही। वेदानुसार दो दृष्टियों से युद्ध किया जा सकता है— (१) परराष्ट्र को सत्यमार्ग पर लाने के लिये। तथा (२) परराष्ट्र द्वारा आक्रमण होने पर स्वराष्ट्र की रक्षा के लिये। परराष्ट्र को अपने अधीन कर उसकी भूमि और सम्पत्ति को हथियाने के लिये युद्ध करना वेदसम्मत नहीं है।]