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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 38

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 38/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - गुल्गुलुः छन्दः - एकावसाना प्राजापत्यानुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त

    उ॒भयो॑रग्रभं॒ नामा॒स्मा अ॑रि॒ष्टता॑तये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उभयोः॑। अ॒ग्र॒भ॒म्। नाम॑। अ॒स्मै। अ॒रि॒ष्टऽता॑तये ॥३८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उभयोरग्रभं नामास्मा अरिष्टतातये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उभयोः। अग्रभम्। नाम। अस्मै। अरिष्टऽतातये ॥३८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 38; मन्त्र » 3

    भाषार्थ -
    (यद्) जो (गुल्गुलु) गुग्गुल (सैन्धवम्) नदीप्रदेशोत्पन्न, (अपि वा) अथवा (यद्) जो गुग्गुल (समुद्रियम्) समुद्रदेशोत्पन्न (असि=अस्ति) है, (उभयोः) इन दोनों का (नाम) नाम (अस्मै) इस व्यक्ति के लिये (अरिष्टतातये) क्षेमविस्तारार्थ, (अग्रभम्) मैं=चिकित्सक ने लिया है। गुग्गुल का सेवन करनेवाले (तस्मात्) उस व्यक्ति से (विष्वञ्चः) नाना देशव्यापी (यक्ष्माः) यक्ष्मा रोग ऐसे (ईरते) कम्पित हो जाते हैं, (इव) जैसे कि [वन्य हिंस्र जन्तु से] (मृगाः अश्वाः) मृग और अश्व कम्पित हो जाते हैं।[ईरते= ईर कम्पने। नाम अग्रभम्=नामनिर्देश करना, ओषध का कथन करना, यक्ष्मरोग की निवृत्ति के लिये।

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