अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 48/ मन्त्र 5
ये रात्रि॑मनु॒तिष्ठ॑न्ति॒ ये च॑ भू॒तेषु॒ जाग्र॑ति। प॒शून्ये सर्वा॒न्रक्ष॑न्ति॒ ते न॑ आ॒त्मसु॑ जाग्रति॒ ते नः॑ प॒शुषु॑ जाग्रति ॥
स्वर सहित पद पाठये। रात्रि॑म्। अ॒नु॒ऽतिष्ठ॑न्ति। ये। च॒। भू॒तेषु॑। जाग्र॑ति। प॒शून्। ये। सर्वा॑न्। रक्ष॑न्ति। ते। नः॒। आ॒त्मऽसु॑। जा॒ग्र॒ति॒। ते। नः॒। प॒शुषु॑। जा॒ग्र॒ति॒ ॥४८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
ये रात्रिमनुतिष्ठन्ति ये च भूतेषु जाग्रति। पशून्ये सर्वान्रक्षन्ति ते न आत्मसु जाग्रति ते नः पशुषु जाग्रति ॥
स्वर रहित पद पाठये। रात्रिम्। अनुऽतिष्ठन्ति। ये। च। भूतेषु। जाग्रति। पशून्। ये। सर्वान्। रक्षन्ति। ते। नः। आत्मऽसु। जाग्रति। ते। नः। पशुषु। जाग्रति ॥४८.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 48; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(ये) जो लोग (रात्रिम्) रात्री में (अनुतिष्ठन्ति) अनुष्ठान करते हैं योग का अभ्यास करते हैं, (च) और (ये) जो (भूतेषु) प्राणियों की उन्नति के सम्बन्ध में (जाग्रति) जागरूक अर्थात् सावधान रहते हैं, (ये) तथा जो (सर्वान् पशून्) सब पशुओं की (रक्षन्ति) रक्षा करते हैं, (ते) वे ही (नः) हमारी (आत्मसु) आत्माओं की उन्नति के सम्बन्ध में (जाग्रति) जागरूक अर्थात् सावधान रहते हैं, और (ते) वे (नः) हमारे (पशुषु) पशुओं की उन्नति के सम्बन्ध में (जाग्रति) जागरूक रहते हैं, सदा प्रयत्नशील होते हैं।
टिप्पणी -
[रात्री के प्रकरण में रात्री के शान्त वायुमण्डल में, योगानुष्ठान का वर्णन है। योगिजन सब प्राणियों की सदा उन्नति में लगे रहते हैं। वे पशुओं तक की रक्षा करते और हिंसा से सदा परे रहते हैं, तथा सब लोगों की आत्मिक-उन्नति के लिये यत्नवान् रहते हैं।]