अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 50/ मन्त्र 2
ये ते॑ रात्र्यन॒ड्वाह॑स्ती॒क्ष्णशृ॑ङ्गाः स्वा॒शवः॑। तेभि॑र्नो अ॒द्य पा॑र॒याति॑ दु॒र्गाणि॑ वि॒श्वहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठये। ते॒। रा॒त्रि॒। अ॒न॒ड्वाहः॑। तीक्ष्ण॑ऽशृङ्गाः। सु॒ऽआ॒शवः॑। तेभिः॑। नः॒। अ॒द्य। पा॒र॒य॒। अति॑। दुः॒ऽगानि॑। वि॒श्वहा॑ ॥५०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ये ते रात्र्यनड्वाहस्तीक्ष्णशृङ्गाः स्वाशवः। तेभिर्नो अद्य पारयाति दुर्गाणि विश्वहा ॥
स्वर रहित पद पाठये। ते। रात्रि। अनड्वाहः। तीक्ष्णऽशृङ्गाः। सुऽआशवः। तेभिः। नः। अद्य। पारय। अति। दुःऽगानि। विश्वहा ॥५०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 50; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(ये) जो (ते) वे (तीक्ष्णशृङ्गाः) तेज सींगोंवाले, (स्वाशवः) अति शीघ्रगामी, (अनड्वाहः) रथ का वहन करने में समर्थ बैल हैं, (तेभिः) उन के द्वारा (अद्य) आज और (विश्वहा) सब दिन अर्थात् सदा (रात्रि) हे रात्रि! (नः) हमें (दुर्गाणि) दुर्गम मार्गों को (अति) लांघ कर (पारय) पार कर दे।
टिप्पणी -
[रात्री में यात्रा करने पर यह निर्देश दिया है कि रथ के बैल प्रौढावस्था के तेज सींगोंवाले, शीघ्रगामी, तथा रथ को ले चलने में समर्थ होने चाहिएँ। रात्री की यात्रा में यदि कोई हिंस्र वन्य-पशु, बैलों पर आक्रमण करे, तो उन से रक्षार्थ, बैल तीक्ष्णशृङ्गोंवाले होने चाहिये।]