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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 64/ मन्त्र 1
अग्ने॑ स॒मिध॒माहा॑र्षं बृह॒ते जा॒तवे॑दसे। स मे॑ श्र॒द्धां च॑ मे॒धां च॑ जा॒तवे॑दाः॒ प्र य॑च्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑। स॒म्ऽइध॑म्। आ। अ॒हा॒र्ष॒म्। बृ॒ह॒ते। जा॒तऽवे॑दसे। सः। मे॒। श्र॒द्धाम्। च॒। मे॒धाम्। च॒। जा॒तऽवे॑दाः। प्र। य॒च्छ॒तु॒ ॥६४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने समिधमाहार्षं बृहते जातवेदसे। स मे श्रद्धां च मेधां च जातवेदाः प्र यच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने। सम्ऽइधम्। आ। अहार्षम्। बृहते। जातऽवेदसे। सः। मे। श्रद्धाम्। च। मेधाम्। च। जातऽवेदाः। प्र। यच्छतु ॥६४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 64; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(अग्ने) हे अग्नि! (जातवेदसे) उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान, (बृहते) तथा महान् तेरे प्रति (समिधम्) समिधा (आहार्षम्) मैं लाया हूँ। (सः) वह (जातवेदाः) उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान अग्नि (मे) मुझे (श्रद्धाम्) सत्य को धारण करने की शक्ति, (च) और (मेधाम्) बुद्धि (प्र यच्छतु) प्रदान करे।
टिप्पणी -
[इस सूक्त द्वारा ब्रह्मचारी अग्नि में इन्धन तथा समिधाओं का आधान करता है, जो काष्ठौषध सात्त्विक और मेधाजनक हों। उनके इन्धन और उनकी समिधाओं के प्रयोग से यज्ञोत्थ धूम्र मन को श्रद्धामय, और बुद्धि को पढ़े-सुने को धारण करने में समर्थ बनाता है। श्रद्धा=श्रत् सत्यनाम (निघं० ३.१०)+धा (धारणे)। मेधा=धीः धारणावती, बुद्धि मेधृ संगमे।]