अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 31/ मन्त्र 2
अरं॒ कामा॑य॒ हर॑यो दधन्विरे स्थि॒राय॑ हिन्व॒न्हर॑यो॒ हरी॑ तु॒रा। अर्व॑द्भि॒र्यो हरि॑भि॒र्जोष॒मीय॑ते॒ सो अ॑स्य॒ कामं॒ हरि॑वन्तमानशे ॥
स्वर सहित पद पाठअर॑म् । कामा॑य । हर॑य: । द॒ध॒न्वि॒रे॒ । स्थि॒राय॑ । हि॒न्व॒न् । हर॑य: । हरी॒ इति॑ । तु॒रा ॥ अर्व॑त्ऽभि: । य: । हरिऽभि: । जोष॑म् । ईय॑ते । स: । अ॒स्य॒ । काम॑म् । हरि॑ऽवन्तम् । आ॒न॒शे॒ ॥३१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अरं कामाय हरयो दधन्विरे स्थिराय हिन्वन्हरयो हरी तुरा। अर्वद्भिर्यो हरिभिर्जोषमीयते सो अस्य कामं हरिवन्तमानशे ॥
स्वर रहित पद पाठअरम् । कामाय । हरय: । दधन्विरे । स्थिराय । हिन्वन् । हरय: । हरी इति । तुरा ॥ अर्वत्ऽभि: । य: । हरिऽभि: । जोषम् । ईयते । स: । अस्य । कामम् । हरिऽवन्तम् । आनशे ॥३१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 31; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(हरयः) परमेश्वर को स्वाभिमुख करनेवाले भक्तिरस, जब परमेश्वर की ओर (दधन्विरे) प्रवाहित होने लगते हैं, तब वे भक्तिरस (स्थिराय कामाय) उपासक की स्थिर मोक्ष-कामना की पूर्ति के लिए (अरम्) पर्याप्त हो जाते हैं। (हरयः) जब से भक्तिरस वास्तव में परमेश्वर को स्वाभिमुख कर लेते हैं, तब परमेश्वर उपासक के (हरी) ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियरूपी अश्वों को (तुरा) त्वरया अर्थात् शीघ्रता से (हिन्वन्) निज प्रेरणाओं द्वारा प्रेरित करने लगता है। (यः) जो परमेश्वर (अर्वद्भिः) उपासक के इन ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियरूपी अश्वों के साथ (जोषम् ईयते) प्रेम करने लगता है, (सः) वह परमेश्वर (अस्य) इस उपासक की (हरिवन्तं कामम्) परमेश्वर-प्राप्ति की कामना को (आनशे) प्राप्त करा देता है, पूर्ण कर देता है।