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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 58/ मन्त्र 1
श्राय॑न्त इव॒ सूर्यं॒ विश्वेदिन्द्र॑स्य भक्षत। वसू॑नि जा॒ते जन॑मान॒ ओज॑सा॒ प्रति॑ भा॒गं न दी॑धिम ॥
स्वर सहित पद पाठश्राय॑न्त:ऽइव । सूर्य॑म् । विश्वा॑ । इत् । इन्द्र॑स्य । भ॒क्ष॒त॒ ॥ वसू॑नि । जा॒ते । जन॑माने । ओज॑सा । प्रति॑ । भा॒गम् । न । दी॒धि॒म॒ ॥५८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रायन्त इव सूर्यं विश्वेदिन्द्रस्य भक्षत। वसूनि जाते जनमान ओजसा प्रति भागं न दीधिम ॥
स्वर रहित पद पाठश्रायन्त:ऽइव । सूर्यम् । विश्वा । इत् । इन्द्रस्य । भक्षत ॥ वसूनि । जाते । जनमाने । ओजसा । प्रति । भागम् । न । दीधिम ॥५८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 58; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
हे प्रजाजनो! (इव) जैसे (सूर्यम्) सूर्य का (श्रायन्तः) आश्रय लेकर सूर्य के ताप और प्रकाश का तुम सब भोग करते हो, वैसे (इन्द्रस्य) परमेश्वर का आश्रय लेकर तुम सब परमेश्वर की (विश्वा) सब (वसूनि) सम्पत्तियों का (इत्) भी (भक्षत) भोग किया करो, और (ओजसा) इस प्रकार ओज से सम्पन्न होओ। और (न) जैसे (जाते) उत्पन्न हुई सन्तान, और (जनमाने=जायमाने) उत्पन्न हो रही सन्तान में, माता-पिता की सम्पत्तियों का (भागम्) विभाग, (प्रति) प्रत्येक सन्तान को दृष्टि में रखकर नियत किया जाता है, वैसे हम सबके लिए, अर्थात् प्रत्येक के लिए, परमेश्वर की सम्पत्तियों का विभाग (दीधिम) नियत विधि से स्थपित करते हैं।