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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 65/ मन्त्र 2
अगो॑रुधाय ग॒विषे॑ द्यु॒क्षाय॒ दस्म्यं॒ वचः॑। घृ॒तात्स्वादी॑यो॒ मधु॑नश्च वोचत ॥
स्वर सहित पद पाठअगो॑ऽरुधाय । गो॒ऽइषे॑ । द्युक्षाय॑ । दस्म्य॑म् । वच॑: ॥ घृ॒तात् । स्वादी॑य: । मधु॑न: । च॒ । वो॒च॒त॒ ॥६५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अगोरुधाय गविषे द्युक्षाय दस्म्यं वचः। घृतात्स्वादीयो मधुनश्च वोचत ॥
स्वर रहित पद पाठअगोऽरुधाय । गोऽइषे । द्युक्षाय । दस्म्यम् । वच: ॥ घृतात् । स्वादीय: । मधुन: । च । वोचत ॥६५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 65; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(अगोरुधाय) अग्रगमन अर्थात् आगे बढ़ने में जो रुकावट नहीं डालता, अपितु (गविषे) आगे बढ़ने को जो चाहता है, (द्युक्षाय) द्युलोक तथा प्रकाश में जिसका निवास है, उसके प्रति, (दस्म्यं वचः) दर्शनीय स्तुतिगीत (वोचत) मधुर स्वरों से गाया करो, जो स्तुतिगीत कि (घृतात्) घृत से (च) और (मधुनः) शहद से भी (स्वादीयः) अधिक स्वादु अर्थात् मधुर हों।