अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वा
देवता - द्यौः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रु सेनासंमोहन सूक्त
अ॒मीषां॑ चि॒त्तानि॑ प्रतिमो॒हय॑न्ती गृहा॒णाङ्गा॑न्यप्वे॒ परे॑हि। अ॒भि प्रेहि॒ निर्द॑ह हृ॒त्सु शोकै॒र्ग्राह्या॒मित्रां॒स्तम॑सा विध्य॒ शत्रू॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒मीषा॑म् । चि॒त्तानि॑ । प्र॒ति॒ऽमो॒हय॑न्ती । गृ॒हा॒ण । अङ्गा॑नि । अ॒प्वे॒ । परा॑ । इ॒हि॒ । अभि । प्र । इ॒हि॒ । नि: । द॒ह॒ । हृ॒त्ऽसु । शोकै॑: । ग्राह्या॑ । अ॒मित्रा॑न् । तम॑सा । वि॒ध्य॒ । शत्रू॑न् ॥२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अमीषां चित्तानि प्रतिमोहयन्ती गृहाणाङ्गान्यप्वे परेहि। अभि प्रेहि निर्दह हृत्सु शोकैर्ग्राह्यामित्रांस्तमसा विध्य शत्रून् ॥
स्वर रहित पद पाठअमीषाम् । चित्तानि । प्रतिऽमोहयन्ती । गृहाण । अङ्गानि । अप्वे । परा । इहि । अभि । प्र । इहि । नि: । दह । हृत्ऽसु । शोकै: । ग्राह्या । अमित्रान् । तमसा । विध्य । शत्रून् ॥२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(अमीषाम्) इन शत्रुओं के (चित्तानि) चित्तों को (प्रति मोहयन्ती) कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान से रहित करती हुई (अप्वे) हे अप्वा-इषु! (अङ्गानि) इनके अङ्गों को (गृहाण) जकड़ दे, (परेहि) और हम से पराङ्मुखी हुई शत्रु की ओर जा। (अभिप्रेहि) साक्षात् शत्रु की ओर प्रयाण कर और (हृत्सु शोकैः) हृदयस्थ शोकाग्नियों द्वारा (निर्दह) इन्हें दग्ध कर, (ग्राह्या) अङ्गों के जकड़नरूपी इषु द्वारा, तथा (तमसा) अन्धकार द्वारा (शत्रुन्) शत्रुओं को (विध्य) बींध।
टिप्पणी -
[मंत्र में अप्वा द्वारा इषु का वर्णन हुआ है। अप्वा का अर्थ है अपगत हुई, जो शत्रु की ओर गमन करती है, अप + वा (गतौ, अदादिः)। इसके तीन काम हैं। (१) शत्रुसेना के अङ्गों को जकड़ देना, (२) शत्रुसेना में तमसा अर्थात् अन्धकार को फैला देना। (३) शत्रु सेना के चित्तों को कर्तव्याकर्तव्य ज्ञान से रहित कर देना। यह इषु भयस्वरूपा है, भयप्रदा है, भयानक है। इसे निरुक्त में "भय" शब्द द्वारा द्योतित किया है। यथा "व्याधिर्वा भयं वा" (६।३।१२; पदसंख्या ४८) अप्वा के चलाने की आज्ञा देता है इन्द्र अर्थात सम्राट्, परन्तु इसे फेंकते हैं "मरुतः" अर्थात् सैनिक (मन्त्र ६)। अप्वा को missile कह सकते हैं।]