अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - रुद्रः, व्याघ्रः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
उदि॒तस्त्रयो॑ अक्रमन्व्या॒घ्रः पुरु॑षो॒ वृकः॑। हिरु॒ग्घि यन्ति॒ सिन्ध॑वो॒ हिरु॑ग्दे॒वो वन॒स्पति॒र्हिरु॑ङ्नमन्तु॒ शत्र॑वः ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । इ॒त: । त्रय॑: । अ॒क्र॒म॒न् । व्या॒घ्र: । पुरु॑ष: । वृक॑: । हिरु॑क् । हि । यन्ति॑ । सिन्ध॑व: । हिरु॑क् । दे॒व: । वन॒स्पति॑: । हिरु॑क् । न॒म॒न्तु॒ । शत्र॑व: ॥३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उदितस्त्रयो अक्रमन्व्याघ्रः पुरुषो वृकः। हिरुग्घि यन्ति सिन्धवो हिरुग्देवो वनस्पतिर्हिरुङ्नमन्तु शत्रवः ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । इत: । त्रय: । अक्रमन् । व्याघ्र: । पुरुष: । वृक: । हिरुक् । हि । यन्ति । सिन्धव: । हिरुक् । देव: । वनस्पति: । हिरुक् । नमन्तु । शत्रव: ॥३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(इतः) यहाँ से (त्रय़ः) तीन (उत् अक्रमण) उत्क्रान्त हो गये हैं, पलायित हो गये हैं, (ब्याघ्रः) बाघ अर्थात् बघेला, (पुरुषः) चोर, (वृक:) भेड़िया (हिरुक् हि) अन्तर्हित हुई ही (सिन्धव:) स्यन्दनशील नदियां (यन्ति) प्रवाहित होती हैं, (वनस्पतिः देव:) वनस्पति-देव (हिरुक्) अन्तर्हित हुआ है, (शत्रव:) मानुष-शत्रु (हिरुक्) अन्तर्हित हो जाएं, (नमन्तु) हमारे प्रति नत हो जाएं, प्रह्वीभूत हो जाएँ, झुक जाएँ।
टिप्पणी -
[हिरुक्=निर्णीतान्तहितनाम (निघं० ३।२५) स्यन्दनशील नदिया अन्तर्हित हो गई हैं। यह प्रत्यक्षदृष्ट के विरुद्ध है, नदियां तो भूपृष्ठ पर यथापूर्व प्रबाहित हो रही हैं। ये आध्यात्मिक नदियां हैं। यथा "सुदेवो असि बरुण यस्य ते सप्तसिन्धबः। अनुक्षरन्ति काकुदं सूर्म्यं सुषिरामिब"। (ऋ० ८।६९।१२), तथा निरुक्त ५।४।२७)। अर्थात् हे वरुण ! उपासकों द्वारा वरण किये गये परमेश्वर ! तू उत्तम-देव है, जिसकी ७ स्यन्दनशील ७ छन्दोमयी वैदिक-ऋचाएं, काकुद१ अर्थात् तालु में क्षरित होती हैं, जैसे कि उत्तम उर्मिवाला स्रोत सच्छिद्रा भूमि में क्षरित हो जाता है। ७ छन्दोमयी ऋचाएं जपकाल में मुख में ही अन्तर्हित होती हैं, बाह्यरूप में प्रकट नहीं होती। वनस्पति:= "तत्को वनस्पति, अग्निरिति शाकपूणिः” (निरुक्त १।३।१६) शाकपूणि के अनुसार वनस्पति है, अग्नि। सूर्य की अग्नि वनों की रक्षा करती तथा पालन करती है। "वनस्पति: वनानां पाता वा पालयिता वा" (निरुक्त ८।२।४) । वनों में स्थित अग्नि वनों की रक्षा करती, तथा इनका पालन करती है, परन्तु ज्वलन-काल में यह अग्नि उद्भूत होकर वनों को भस्मीभूत कर देती है। यह अग्नि वनों में प्रविष्ट हुई वनों में ही रुक् रहती है, अन्तर्हित रहती है, छिपी रहती है।][१. कोकुबा जिह्वा, कोकूयतेः वा स्यात् शब्दकर्मणः। साऽस्मिन् धीयते इति=तालु (निरुक्त ५।४।२७), पद ७६।]