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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 120/ मन्त्र 2
सूक्त - कौशिक
देवता - अन्तरिक्षम्, पृथिवी, द्यौः, अग्निः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सुकृतलोक सूक्त
भूमि॑र्मा॒तादि॑तिर्नो ज॒नित्रं॒ भ्राता॒न्तरि॑क्षम॒भिश॑स्त्या नः। द्यौर्नः॑ पि॒ता पित्र्या॒च्छं भ॑वाति जा॒मिमृ॒त्वा माव॑ पत्सि लो॒कात् ॥
स्वर सहित पद पाठभूमि॑: । मा॒ता । अदि॑ति: । न॒: । ज॒नित्र॑म् । भ्रता॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒भिऽश॑स्त्या । न॒: । द्यौ: । न॒: । पि॒ता । पित्र्या॑त् । शम् । भ॒वा॒ति॒ । जा॒मिम् । ऋ॒त्वा । मा । अव॑ । प॒त्सि॒ । लो॒कात् ॥१२०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
भूमिर्मातादितिर्नो जनित्रं भ्रातान्तरिक्षमभिशस्त्या नः। द्यौर्नः पिता पित्र्याच्छं भवाति जामिमृत्वा माव पत्सि लोकात् ॥
स्वर रहित पद पाठभूमि: । माता । अदिति: । न: । जनित्रम् । भ्रता । अन्तरिक्षम् । अभिऽशस्त्या । न: । द्यौ: । न: । पिता । पित्र्यात् । शम् । भवाति । जामिम् । ऋत्वा । मा । अव । पत्सि । लोकात् ॥१२०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 120; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(भूमिः माता) भूमि सदृश [पालिका] माता, जो कि (न:) हमें (जनित्रम) शारीरिक जन्म देने वाली (अदितिः) तथा दीनता के भावों से रहित है, स्वावलम्ब स्वभाव वाली है, तथा (अन्तरिक्षम्, भ्राता) अन्तरिक्ष सदृश भरण पोषण करने वाला भाई (नः) हमें (अभिशस्त्या) मिथ्या अपवादों से [सापण] सुरक्षित करें। (द्यौः) द्युलोक के सदृश (पिता) पिता हमें (पित्र्यात्) पिता से प्राप्त होने वाले दोष से हटा कर (शम् भवाति) सुखदायक हो। [हे पुत्रः] हे पुत्र ! दोषों से रहित और (जामिम् ऋत्वा) कुलस्त्री को विवाह विधि से प्राप्त करके तू (लोकात्) सुकर्मी वर्ग के लोक से (मा) न (अवपत्सि) अवपतन कर, गिरावट को न प्राप्त हो।
टिप्पणी -
[अदितिः= अदीना, देवमाता, देवसदृश पुत्रों की माता। शरीर इन्द्रियां तथा चित्त में जब रजस्-तमस् का प्राधान्य हो जाता है तो अभिशस्ति होती है, प्रकृति के सत्त्वगुण के अतिरेक में अभिशस्ति, अर्थात् निन्दा नहीं होती। अन्तरिक्ष वर्षा द्वारा जल प्रदान कर, भ्राता के सदृश भरण-पोषण करता है। जामिः "स्वसा कुलस्त्री वा" (उणा० ४।४४ दयानन्द) माता और भाई का समुचित आदर न करना, और प्रकृति के राजस-तामस भोगों में लिप्त रहना, - यह है अभिशस्ति, लोकापवाद, निन्दा का कारण।]