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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 21/ मन्त्र 3
    सूक्त - शन्ताति देवता - चन्द्रमाः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - केशवर्धनी ओषधि सूक्त

    रेव॑ती॒रना॑धृषः सिषा॒सवः॑ सिषासथ। उ॒त स्थ के॑श॒दृंह॑णी॒रथो॑ ह केश॒वर्ध॑नीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रेव॑ती: । अना॑धृष: । सि॒सा॒सव॑: । सि॒सा॒स॒थ॒ । उ॒त । स्थ । के॒श॒ऽदृंह॑णी:। अथो॒ इति॑ । ह॒ । के॒श॒ऽवर्ध॑नी ॥२१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रेवतीरनाधृषः सिषासवः सिषासथ। उत स्थ केशदृंहणीरथो ह केशवर्धनीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रेवती: । अनाधृष: । सिसासव: । सिसासथ । उत । स्थ । केशऽदृंहणी:। अथो इति । ह । केशऽवर्धनी ॥२१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 21; मन्त्र » 3

    भाषार्थ -
    हे ओषधियो ! तुम (रेवती:) बहुमूल्य वाली हो, (अनाधृषः) अपराभवनीय शक्ति सम्पन्ना हो, (सिषासवः) तुम लाभ देना चाहती हो, (सिषासथ) तुम लाभ प्रदान करो। (उत) तथा (स्थ) तुम हो (केशदृहणीः) केशों को दृढ़ करने वाली (अथो ह) और (केशवर्धनीः) केशों को बढ़ाने वाली।

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