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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 37/ मन्त्र 2
परि॑ णो वृङ्ग्धि शपथ ह्र॒दम॒ग्निरि॑वा॒ दह॑न्। श॒प्तार॒मत्र॑ नो जहि दि॒वो वृ॒क्षमि॑वा॒शनिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । न॒: । वृ॒ङ्ग्धि॒ । श॒प॒थ॒ । ह्रदम् । अग्नि:ऽइ॑व । दह॑न् । श॒प्तार॑म् । अत्र॑ । न॒: । ज॒हि॒ । दि॒व: । वृ॒क्षम्ऽइ॑व । अ॒शनि॑: ॥३७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
परि णो वृङ्ग्धि शपथ ह्रदमग्निरिवा दहन्। शप्तारमत्र नो जहि दिवो वृक्षमिवाशनिः ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । न: । वृङ्ग्धि । शपथ । ह्रदम् । अग्नि:ऽइव । दहन् । शप्तारम् । अत्र । न: । जहि । दिव: । वृक्षम्ऽइव । अशनि: ॥३७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 37; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(शपथ) हे शपथरूपधारो परमेश्वर ! (नः) हमें, (परिवृङ्धि) हम में बसा हुआ भी तू, हमें परिवर्जित कर दे, त्याग दे, ( इव ) जैसे (अग्निः) आग (अदहन्) न दग्ध करती हुई (ह्रदम्) ह्रद को त्याग देती है। (अत्र) यहां अर्थात् हमारे हृदयों में रहता हुआ तू (नः) हमारे (शप्तारम्) शाप दाता का (जहि) हनन कर (इव) जैसे (दिवः) द्युलोक की ( अशनिः) विद्युत् [द्युलोक का हनन न करती हुई] (वृक्षम्) वृक्ष का हनन करती है ।
टिप्पणी -
[ह्रद में पानी होता है, उस पानी में भी अग्नि विद्युत् रूप में रहतो है, परन्तु पानी का दहन नहीं करती, दिव् को अशनि दिव् में रहती है परन्तु दिव् का हनन नहीं करती, इसी प्रकार हे परमेश्वर ! शपथ रूप में हम में बसा हुआ मी तू हमारा हनन न कर]।