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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 51/ मन्त्र 1
वा॒योः पू॒तः प॒वित्रे॑ण प्र॒त्यङ्सोमो॒ अति॑ द्रु॒तः। इन्द्र॑स्य॒ युजः॒ सखा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवा॒यो: । पू॒त: । प॒वित्रे॑ण । प्र॒त्यङ् । सोम॑: । अति॑ । द्रु॒त: । इन्द्र॑स्य । युज्य॑:। सखा॑ ॥५१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वायोः पूतः पवित्रेण प्रत्यङ्सोमो अति द्रुतः। इन्द्रस्य युजः सखा ॥
स्वर रहित पद पाठवायो: । पूत: । पवित्रेण । प्रत्यङ् । सोम: । अति । द्रुत: । इन्द्रस्य । युज्य:। सखा ॥५१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 51; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(वायोः, पवित्रेण) वायुरूपी पवित्रता के साधन द्वारा (पूतः) पवित्र हुआ, (अति द्रुतः) अतिद्रवित (सोमः) वीर्य (प्रत्यङ) प्रत्येक अङ्ग में गति करता है। यह (इन्द्रस्य) जीवात्मा का (युज्यः) साथ जुता (सखा) मित्र है। प्रत्यङ्= प्रति (प्रत्येक अङ्ग में) + अञ्चु गतौ।
टिप्पणी -
["वायोः पवित्रेण" में षष्ठी विभक्ति विकल्प में है। यथा "शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः" ( योग १।९)। सोमः= सु [षु] प्रसवे (भ्वादिः) + मन् (प्रत्यय, उणा० १।१४०)। अत: सुमन्= Semen (वीर्य ) देखो (अथर्व० १४।१।३-५) मत्कृत भाष्य। सोम= (वीर्य) का सम्बन्ध वायु के साथ है यथा "वायु: सोमस्य रक्षिता" (अथव० १४।१॥४); प्राणायाम सम्बन्धी वायु सोम (वीर्य) की रक्षा करती है। रक्त में सुरक्षित हुआ सोम अतिद्रवित हुआ रक्त में विलीन रहता है, और रक्त के साथ प्रत्येक अङ्ग में गति करता है। स्थूल रूप में प्रकट हुआ सोम शरीर से प्रच्युत हो जाता है, शरीर में ठहर नहीं सकता। इन्द्र है जीवात्मा। यथा "इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गम्" (अष्टा० ५।२।९३)। शरीर रथ में सोम, इन्द्र [जीवात्मा] के साथ जुता हुआ, शरीर रथ का संचालन करता है। वीर्य के अभाव में शरीर रथ का संचालन नहीं हो सकता। युज्य: का अर्थ है जुता हुआ. न कि "योग्य"। अन्यथा मन्त्र में "योग्य:" पद ही पठित होता। "सखा" द्वारा शरीर के सम्यक्तया संचालन में "सोम और इन्द्र" में पारस्परिक सहयोग और सामनस्य सूचित किया है]।