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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 17/ मन्त्र 3
सूक्त - भृगुः
देवता - सविता
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - द्रविणार्थप्रार्थना सूक्त
धा॒ता विश्वा॒ वार्या॑ दधातु प्र॒जाका॑माय दा॒शुषे॑ दुरो॒णे। तस्मै॑ दे॒वा अ॒मृतं॒ सं व्य॑यन्तु॒ विश्वे॑ दे॒वा अदि॑तिः स॒जोषाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठधा॒ता । विश्वा॑ । वार्या॑ । द॒धा॒तु॒ । प्र॒जाऽका॑माय । दा॒शुषे॑ । दु॒रो॒णे । तस्मै॑ । दे॒वा: । अ॒मृत॑म् । सम् । व्य॒य॒न्तु॒ । विश्वे॑ । दे॒वा: । अदि॑ति: । स॒ऽजोषा॑: ॥१८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
धाता विश्वा वार्या दधातु प्रजाकामाय दाशुषे दुरोणे। तस्मै देवा अमृतं सं व्ययन्तु विश्वे देवा अदितिः सजोषाः ॥
स्वर रहित पद पाठधाता । विश्वा । वार्या । दधातु । प्रजाऽकामाय । दाशुषे । दुरोणे । तस्मै । देवा: । अमृतम् । सम् । व्ययन्तु । विश्वे । देवा: । अदिति: । सऽजोषा: ॥१८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(प्रजाकामाय) प्रजा की कामना वाले, (दाशुषे) दानवृत्तिवाले के लिये (दुरोणे) उस के गृह में (धाता) धारण-पोषण करने वाला परमेश्वर (विश्वा) सब प्रकार के (वार्या) वरणीय धन (दधातु) दे, और उन्हें परिपुष्ट करे। (तस्मै) उस के लिये (देवाः) देव, (विश्वेदेवाः) अर्थात् सब देव, तथा (सजोषाः) प्रेममयी (अदितिः) अदीना पारमेश्वरी देवमाता (अमृतम्) अविनाशी मोक्ष सुख (संव्ययन्तु) प्रदान करें।
टिप्पणी -
[प्रजा की कामना वाले गृहस्थी को भी दान देना चाहिये। इस दान वृत्ति वाले गृहस्थी को गृहस्थ में भी मोक्षसुख प्राप्त हो जाता है, और मोक्षसुख की प्राप्ति में सब देव और परमेश्वर उसके सहायक हो जाते हैं। देव हैं दिव्यगुणी विद्वान्। संव्ययन्तु = व्येञ् संवरणे (भ्वादिः)। संवरण = ढांपना। अर्थात् ऐसे गृहस्थी को मोक्षसुख के आवरण द्वारा सब देव और अदिति मिल कर ढांप देते हैं, ढांप कर सुरक्षित कर देते हैं, जिससे लोभादि कुवृत्तियों की मार से वह बचा रहता है]।