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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - पर्जन्यः, पृथिवी छन्दः - चतुष्पदा भुरिगुष्णिक् सूक्तम् - वृष्टि सूक्त

    प्र न॑भस्व पृथिवि भि॒न्द्धी॒दं दि॒व्यं नभः॑। उ॒द्नो दि॒व्यस्य॑ नो धात॒रीशा॑नो॒ वि ष्या॒ दृति॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । न॒भ॒स्व॒ । पृ॒थि॒व‍ि॒ । भि॒न्ध्दि । इ॒दम् । दि॒व्यम् ।नभ॑: । उ॒द्ग: । दि॒व्यस्य॑ । न॒:। धा॒त॒: । ईशा॑न: । वि । स्य॒ । दृति॑म् ॥१९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र नभस्व पृथिवि भिन्द्धीदं दिव्यं नभः। उद्नो दिव्यस्य नो धातरीशानो वि ष्या दृतिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । नभस्व । पृथिव‍ि । भिन्ध्दि । इदम् । दिव्यम् ।नभ: । उद्ग: । दिव्यस्य । न:। धात: । ईशान: । वि । स्य । दृतिम् ॥१९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 1

    भाषार्थ -
    (पृथिवि) हे विस्तृत अन्तरिक्ष ! (प्र नभस्व) तू प्रकर्ष में हिंसित हो जा, और (इदम्) इस (दिव्यम्, नभः) दिव्य मेघ का (भिन्द्धि) भेदन कर (धातः) हे धारण-पोषण करने वाले (ईशानः) अधीश्वर ! तू (दिव्यंस्य उन्दः) दिव्य उदक की (दृतिम्) चमड़े की थैली के सदृश मेघरूपी थैली को (नः) हमारे लिये (आ विज्य) खोल दे।

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