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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
अ॒या वि॒ष्ठा ज॒नय॒न्कर्व॑राणि॒ स हि घृणि॑रु॒रुर्वरा॑य गा॒तुः। स प्र॒त्युदै॑द्ध॒रुणं॒ मध्वो॒ अग्रं॒ स्वया॑ त॒न्वा त॒न्वमैरयत ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒या । वि॒ऽस्था । ज॒नय॑न् । कर्व॑राणि । स: । हि । घृणि॑: । उ॒रु: । वरा॑य । गा॒तु: । स: । प्र॒ति॒ऽउदै॑त् । ध॒रुण॑म् । मध्व॑: । अग्र॑म् । स्वया॑ । त॒न्वा᳡ । त॒न्व᳡म् । ऐ॒र॒य॒त॒ ॥३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अया विष्ठा जनयन्कर्वराणि स हि घृणिरुरुर्वराय गातुः। स प्रत्युदैद्धरुणं मध्वो अग्रं स्वया तन्वा तन्वमैरयत ॥
स्वर रहित पद पाठअया । विऽस्था । जनयन् । कर्वराणि । स: । हि । घृणि: । उरु: । वराय । गातु: । स: । प्रतिऽउदैत् । धरुणम् । मध्व: । अग्रम् । स्वया । तन्वा । तन्वम् । ऐरयत ॥३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(अया = अनया) हम (विष्ठा= विष्ठया) विविध स्थिति के कारण (कर्वराणि) जगत् के कर्मों को (जनयन्) पैदा करता हुआ (सः हि) वह [अथर्वा-परमेश्वर] ही (घृणिः) दिन के समान चमकता है, (उरुः) और वह सर्वाच्छादक है। (वराय) वह वरण किये गए उपासक के लिये (गातुः) मार्ग प्रदर्शक होता है। (सः) वह परमेश्वर (धरुणम्) हमारा धारण करने वाले सूर्य के (प्रति उदैत्) प्रति सदा उदित रहता है। सूर्य जो कि (मध्वः अग्रम्) जल आदि पदार्थों या मधुर अन्नों के उत्पादन में अग्र है, मुखिया है। (स्वया तन्वा) परमेश्वर निज विस्तार द्वारा (तन्वम्) विस्तृत ब्रह्माण्ड को (ऐरयत) प्रेरित करता है।
टिप्पणी -
[अया= तृतीयाया याजादेशः (सायण)। कर्वराणि = कर्वरम् कर्मनाम (निघं० २।१)। घृणिः अहर्नाम (निघं० २।९ ); घृ दीप्तौ (जुहोत्यादिः)। दिन प्रदीप्त ही होता है। उरुः= ऊर्णूञ् आच्छादने (अदादिः)। मध्वः, मधु उदकनाम (निघं० १।१२), अथवा मधुर अन्न। धरुणम्= सूर्य हमारा धारण करता है, और परमेश्वर सूर्य का धारण करता है, एतदर्थ वह सूर्य में मानो सदा उदित रहता है। जैसे कि कहा है "योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म" (यजु० ४०।१७)। तन्वा, तन्वम् = तनु विस्तारे (तनादिः)। परमेश्वर विविध पदार्थों में स्थित होकर उन के कर्मों को नियन्त्रित करता है]।