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अथर्ववेद > काण्ड 8 > सूक्त 2

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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 16
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त

    यत्ते॒ वासः॑ परि॒धानं॒ यां नी॒विं कृ॑णु॒षे त्वम्। शि॒वं ते॑ त॒न्वि॒ तत्कृ॑ण्मः संस्प॒र्शेऽद्रू॑क्ष्णमस्तु ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ते॒ । वास॑: । प॒रि॒ऽधान॑म् । याम् । नी॒विम् । कृ॒णु॒षे । त्वम् । शि॒वम् । ते॒ । त॒न्वे᳡ । तत् । कृ॒ण्म॒: । स॒म्ऽस्प॒र्शे । अद्रू॑क्ष्णम् । अ॒स्तु॒ । ते॒ ॥२.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्ते वासः परिधानं यां नीविं कृणुषे त्वम्। शिवं ते तन्वि तत्कृण्मः संस्पर्शेऽद्रूक्ष्णमस्तु ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । ते । वास: । परिऽधानम् । याम् । नीविम् । कृणुषे । त्वम् । शिवम् । ते । तन्वे । तत् । कृण्म: । सम्ऽस्पर्शे । अद्रूक्ष्णम् । अस्तु । ते ॥२.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 16

    शब्दार्थ -
    हे पुरुष ! (ते) तेरा (यत्) जो (परिधानन्) शरीर को ढकने के लिए (वास:) कपड़ा है और (याम्) जिस वस्त्र को (त्वम्) तू (नीविम्) कटि के नीचे धोती, लंगोटी आदि के रूप में (कृणुषे) धारण करता है हम (तत्) उस वस्त्र को (ते तन्वे) तेरे शरीर के लिए (शिवम्) सुखकारी (कृण्म:) बनाते हैं जिससे वह वस्त्र (ते) तेरे लिए (संस्पर्शे) स्पर्श में (अद्रुक्षणम्) रूखा, कठोर और खुर्दरा न होकर कोमल और मुलायम (अस्तु) हो ।

    भावार्थ - वैदिक सभ्यता और संस्कृति सर्वप्राचीन है । मनुष्य को ज्ञान और विज्ञान की शिक्षा वेदों से ही प्राप्त हुई। उसने सभ्यता और संस्कृति का प्रथम पाठ वेद से ही सीखा । मनुष्य ने अस्त्र-शस्त्र और नाना प्रकार के यान और यन्त्रों का निर्माण करना वेद से ही सीखा । जिस समय इंग्लैण्ड और अमेरिका के निवासी असभ्य और जंगली थे उस समय भारतवर्ष ज्ञान और विज्ञान में बहुत आगे बढ़ा हुआ था। महाभारत के युद्ध से भारत को ऐसा धक्का लगा कि वह अब तक भी संभल नहीं पाया है । प्रस्तुत मन्त्र में कोमल और सुखस्पर्शी वस्त्र बुनने का वर्णन स्पष्ट है । मनुष्य दो प्रकार के वस्त्र पहनता है - एक कटि से ऊपर, दूसरे कटि-प्रदेश से नीचे । ये दोनों प्रकार के वस्त्र इस प्रकार के हों जो शरीर को सुख देनेवाले हों । ये शरीर में चुभनेवाले न हों। सुख देनेवाले वस्त्र वे ही होंगे जो गर्मी और सर्दी से हमारी रक्षा कर सके और कोमल तथा मुलायम हों ।

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