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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 105 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 105/ मन्त्र 17
ऋषिः - आप्त्यस्त्रित आङ्गिरसः कुत्सो वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्रि॒तः कूपेऽव॑हितो दे॒वान्ह॑वत ऊ॒तये॑। तच्छु॑श्राव॒ बृह॒स्पति॑: कृ॒ण्वन्नं॑हूर॒णादु॒रु वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥
स्वर सहित पद पाठत्रि॒तः । कूपे॑ । अव॑ऽहितः । दे॒वान् । ह॒व॒ते॒ । ऊ॒तये॑ । तत् । शु॒श्रा॒व॒ । बृह॒स्पतिः॑ । कृ॒ण्वन् । अं॒हू॒र॒णात् । उ॒रु । वि॒त्तम् । मे॒ । अ॒स्य । रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रितः कूपेऽवहितो देवान्हवत ऊतये। तच्छुश्राव बृहस्पति: कृण्वन्नंहूरणादुरु वित्तं मे अस्य रोदसी ॥
स्वर रहित पद पाठत्रितः। कूपे। अवऽहितः। देवान्। हवते। ऊतये। तत्। शुश्राव। बृहस्पतिः। कृण्वन्। अंहूरणात्। उरु। वित्तम्। मे। अस्य। रोदसी इति ॥ १.१०५.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 105; मन्त्र » 17
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
विषय - कूप में पड़ा त्रित
शब्दार्थ -
(कूपे अवहितः) कुएँ में पड़ा हुआ (त्रितः) त्रित (ऊतये) अपनी रक्षा के लिए (देवान्) विद्वानों को (हवते) पुकारता है । वह कहता है - (रोदसी) हे स्त्री-पुरुषो ! (मे अस्य वित्तम्) मेरे इस दुःख को जानो, मेरे कष्टों का अनुभव करो (अंहूरणात्) चारों ओर से आघात करनेवाले पाप और सन्ताप से बचने के लिए (उरु कृण्वन्) प्रचण्ड प्रयत्न करते हुए उसकी (तत्) उस पुकार को (बृहस्पतिः) सर्वलोकों का स्वामी, श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ गुरु (सुश्राव) सुनता है ।
भावार्थ - कुछ लोग वेद में इतिहास खोजा करते हैं। ऐसे व्यक्ति इस मन्त्र में त्रित का इतिहास बताते हैं । वस्तुतः इस मन्त्र में किसी व्यक्तिविशेष का इतिहास नहीं है। आइए, तनिक देखें यह त्रित कौन है ? आध्यात्मिक, आधभौतिक और आधिदैविक - तीन दुःख हैं । इन तीन दुःखों में फँसा हुआ जीवात्मा ही त्रित है । मन्त्र में वर्णित त्रित कोई व्यक्ति-विशेष नहीं है। ऐसे त्रित पहले भी हुए हैं, अब भी और आगे भी होंगे । कूप क्या है ? यह संसार ही कूप है । त्रिविध तापों से बद्ध जीवात्मा संसाररूपी कुएँ में पड़ा हुआ है । इस कुएँ से निकलने के लिए वह देवों को, ज्ञानी गुरुओं को पुकारता है । संसार के स्त्री-पुरुषों को अपनी करुणाभरी कहानी सुनाता है । इस कूप से निकलने के लिए, त्रिविध तापों से छूटने के लिए जब वह घोर परिश्रम करता है तब ज्ञानी गुरु उसकी पुकार सुनता है और उसे मार्ग बताता है, तदनुसार आचरण करता हुआ मनुष्य इस कुएँ से निकल आता है ।
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