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ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 20
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
द्वा सु॑प॒र्णा स॒युजा॒ सखा॑या समा॒नं वृ॒क्षं परि॑ षस्वजाते। तयो॑र॒न्यः पिप्प॑लं स्वा॒द्वत्त्यन॑श्नन्न॒न्यो अ॒भि चा॑कशीति ॥
स्वर सहित पद पाठद्वा । सु॒ऽप॒र्णा । स॒ऽयुजा॑ । सखा॑या । स॒म॒नम् । वृ॒क्षम् । परि॑ । स॒स्व॒जा॒ते॒ इति॑ । तयोः॑ । अ॒न्यः । पिप्प॑लम् । स्वा॒दु । अत्ति॑ । अन॑श्नन् । अ॒न्यः । अ॒भि । चा॒क॒शी॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति ॥
स्वर रहित पद पाठद्वा। सुऽपर्णा। सऽयुजा। सखाया। समानम्। वृक्षम्। परि। सस्वजाते इति। तयोः। अन्यः। पिप्पलम्। स्वादु। अत्ति। अनश्नन्। अन्यः। अभि। चाकशीति ॥ १.१६४.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 20
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
विषय - त्रैतवाद
शब्दार्थ -
(द्वा सुपर्णा) दो उत्तम पंखोंवाले पक्षी, पक्षी की भाँति गमनागमनवाले, आत्मा और परमात्मा (सयुजा) एक-साथ मिले (सखाया) एक- दूसरे के मित्र बने हुए (समानं वृक्षम्) एक ही वृक्ष = प्रकृति अथवा शरीर पर स्थित (परिषस्वजाते) एक-दूसरे को आलिङ्गन किये हुए हैं (तयो:) उन दोनों में (अन्य:) एक जीवात्मा (पिप्पलं स्वादु अत्ति) संसार के फलों को स्वादु जानकर खाता है, भोगता है (अन्य: अनश्नन्) दूसरा परमात्मा न खाता हुआ (अभि चाकशीति) केवलमात्र देखता है, साक्षी बनकर रहता है ।
भावार्थ - मन्त्र में त्रैतवाद का सुन्दर ढंग से प्रतिपादन किया गया है। संसार में तीन पदार्थ अनादि हैं-परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति । मन्त्र में इन तीनों का निर्देश है । जीवात्मा और परमात्मा दोनों ज्ञानवान् और चेतन हैं, दोनों संसाररूपी वृक्ष पर स्थित हैं । जीवात्मा अल्पज्ञ है। अपनी अल्पज्ञता के कारण वह संसार के फलों को स्वादु समझकर उनमें आसक्त हो जाता है। परमात्मा सर्वज्ञ है। उसे भोग की इच्छा नहीं, आवश्यकता भी नही । वह जीवात्मा का साक्षी बना हुआ है । मनुष्य को संसार के पदार्थों का त्यागपूर्वक भोग करते हुए परमात्मा की शरण में जाना चाहिए, इसी में उसका कल्याण है ।
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