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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 164 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 38
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    अपा॒ङ्प्राङे॑ति स्व॒धया॑ गृभी॒तोऽम॑र्त्यो॒ मर्त्ये॑ना॒ सयो॑निः। ता शश्व॑न्ता विषू॒चीना॑ वि॒यन्ता॒ न्य१॒॑न्यं चि॒क्युर्न नि चि॑क्युर॒न्यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अपा॑ङ् । प्राङ् । ए॒ति॒ । स्व॒धया॑ । गृ॒भी॒तः । अम॑र्त्यः । मर्त्ये॑न । सऽयो॑निः । ता । शश्व॑न्ता । वि॒षू॒चीना॑ । वि॒ऽयन्ता॑ । नि । अ॒न्यम् । चि॒क्युः । न । नि । चि॒क्युः॒ । अ॒न्यम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपाङ्प्राङेति स्वधया गृभीतोऽमर्त्यो मर्त्येना सयोनिः। ता शश्वन्ता विषूचीना वियन्ता न्य१न्यं चिक्युर्न नि चिक्युरन्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपाङ्। प्राङ्। एति। स्वधया। गृभीतः। अमर्त्यः। मर्त्येन। सऽयोनिः। ता। शश्वन्ता। विषूचीना। विऽयन्ता। नि। अन्यम्। चिक्युः। न। नि। चिक्युः। अन्यम् ॥ १.१६४.३८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 38
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 3

    शब्दार्थ -
    जीवात्मा (स्वधया गृभीत:) अपने कर्मों से बद्ध होकर (अपाङ् एति) अत्यन्त नीच गति, नीच योनियों को प्राप्त होता है और (प्राड् एति) अत्यन्त उत्कृष्ट गति को, उत्कृष्ट योनियों को जाता है (अमर्त्यः) यह अविनाशी आत्मा (मर्त्येन) मरणधर्मा शरीर के साथ (सयोनिः) मिलकर रहता है । (ता) वे दोनों -शरीर और आत्मा (शश्वन्ता) सदा एक-दूसरे के साथ रहनेवाले (विषूचीना) परस्पर विरुद्ध गतिवाले (वियन्ता) वियोग को प्राप्त होनेवाले हैं। संसारी जीव (अन्यम्) उनमें से एक को, शरीर को (निचिक्यु:) भली प्रकार जानते हैं परन्तु (अन्यम्) दूसरे को (न निचिक्युः) नही जानते ।

    भावार्थ - १. जीवात्मा जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगता है। पापकर्म करने पर जीवात्मा अत्यन्त निकृष्ट कीट-पतङ्ग आदि योनियों में जाता है और पुण्यकर्म करने पर अत्यन्त उत्कृष्ट मानव-देह को प्राप्त करता है । २. जीवात्मा अविनाशी है परन्तु यह विनाशी शरीर के साथ रहता है। ३. जीवात्मा और शरीर विरुद्ध गतिवाले हैं - आत्मा चेतन है और शरीर जड़ है । ४. आत्मा का शरीर के साथ संयोग और वियोग होता रहता है । संयोग का नाम जन्म और वियोग का नाम मृत्यु है । ५. संसारी जन इन दोनों में से शरीर को तो खूब जानते हैं परन्तु आत्मा को नहीं जानते। हे संसार के लोगो ! आध्यात्मिक पथ के पथिक बनकर आत्मा को जानने का प्रयत्न करो ।

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