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यजुर्वेद अध्याय - 19

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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 77
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - अतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः
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    दृ॒ष्ट्वा रू॒पे व्याक॑रोत् सत्यानृ॒ते प्र॒जाप॑तिः। अश्र॑द्धा॒मनृ॒तेऽद॑धाच्छ्र॒द्धा स॒त्ये प्र॒जाप॑तिः। ऋ॒तेन॑ स॒त्यमि॑न्द्रि॒यं वि॒पान॑ꣳ शु॒क्रमन्ध॑स॒ऽइन्द्र॑स्येन्द्रि॒यमि॒दं पयो॒ऽमृ॒तं मधु॑॥७७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दृ॒ष्ट्वा। रू॒पेऽइति॑ रू॒पे। वि। आ। अ॒क॒रो॒त्। स॒त्या॒नृ॒ते इति॑ सत्यऽअनृ॒ते। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। अश्र॑द्धाम्। अनृ॑ते। अद॑धात्। श्र॒द्धाम्। स॒त्ये। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। ऋ॒तेन॑। स॒त्यम्। इ॒न्द्रि॒यम्। वि॒पान॒मिति॑ वि॒ऽपान॑म्। शु॒क्रम्। अन्ध॑सः। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒यम्। इ॒दम्। पयः॑। अ॒मृत॑म्। मधु॑ ॥७७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत्सत्यानृते प्रजापतिः । अश्रद्धामनृते दधाच्छ्रद्धाँ सत्ये प्रजापतिः । ऋतेन सत्यमिन्द्रियँविपानँ शुक्रमन्धसऽइन्द्रस्येन्द्रियमिदम्पयोमृतम्मधु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दृष्ट्वा। रूपेऽइति रूपे। वि। आ। अकरोत्। सत्यानृते इति सत्यऽअनृते। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। अश्रद्धाम्। अनृते। अदधात्। श्रद्धाम्। सत्ये। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। ऋतेन। सत्यम्। इन्द्रियम्। विपानमिति विऽपानम्। शुक्रम्। अन्धसः। इन्द्रस्य। इन्द्रियम्। इदम्। पयः। अमृतम्। मधु॥७७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 77
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    Bhajan -

    वैदिक भजन ११२३वां
                      राग छायानट
                        ताल अद्धा
    पायें हम व्रत के द्वारा योग्यता 
    और आदर सत्कार 
    जागे उससे हमें सत्य पर श्रद्धा 
    आस्था का खुल जाए द्वार ।।
    पाए हम..........
    श्रद्धा ही है सत्य का कारण 
    श्रद्धा युक्त करें सत्य-धारण 
    जागती सत्य से आत्मा की प्रभा 
    पाते मनुष्य सत्कार  ।।
    पाएं हम.......
    श्रद्धा से है सत्य संवृद्ध 
    अश्रद्धा अनृत में है स्थित
    श्रद्धालु की शोभा सत्य में,
    रहे सत्यव्रत ही आधार ।।
    पायें हम..........
    सत्य-असत्य दोनों के लक्षण 
    एक दूजे से रहे विमुख गुण
    सत्य है सृष्टि नियमों का प्रापक
    और अनृत में विकार ।।
    पायें हम........
    लज्जा भय संकोच अनृत में
    आत्मा जाता अध:पतन में
    मिटता जीवन का उत्साह
    होता सतत् अपचार 
    पायें हम.........
    श्रद्धा से तो सत्य ही जागे
    और कुटिलता मन से भागे
    बढ़े जीवन उन्नति से आगे
    बढ़ जाए सदाचार ।।
    पायें हम.........
                        शब्दार्थ:-
    प्रभा= तेज, कान्ति
    संवृद्ध=उन्नत,बढ़ा हुआ
    विमुख=एक दूसरे से उलट
    प्रापक= पाने वाला
    अनृत=असत्य
    आध:पतन=अत्यन्त गिरावट
    अपचार=दोष,दुष्कर्म
    कुटिलता= टेढ़ापन
    सदाचार= सत्य आचरण
                  १९.७.२०२३
                 १२.०५ दोपहर

    वैदिक मन्त्रों के भजनों की द्वितीय श्रृंखला का ११६ वां वैदिक भजन ।
    और प्रारम्भ से क्रमबद्ध अबतक का ११२३ वां वैदिक भजन 
    वैदिक संगीत प्रेमी श्रोताओं को  हार्दिक शुभकामनाएं !
    🕉️🙏🌷🌺🥀🌹💐

    Vyakhya -

    प्रिय सुधी श्रोताओ ❗आज श्रद्धा का रहस्य का छटा और अन्तिम वैदिक भजन आपकी सेवा में प्रस्तुत है। श्रद्धा के महत्व को समझते हुए, सच्चे श्रद्धालु बनते हुए,हम श्रद्धा के प्रति समर्पित होवें। 

    श्रद्धा का रहस्य-६
    व्रत धारण--नियम धारण से मनुष्य को उत्तम अधिकार, योग्यता प्राप्त होती है। योग्यता से मनुष्य का आदर सत्कार होता है। आदर्श सरकार के कारण मनुष्य को सत्य पर श्रद्धा, निष्ठा, आस्था उत्पन्न होती है। उस आस्था के कारण मनुष्य सत्य को पा लेता है।
    हमने ऋग्वेद १०.१५१.१ की व्याख्या में श्रद्धा का अर्थ किया है--' सत्य का धारण करना ' उसी भाव का वर्णन
    'श्रद्धया सत्य माप्यते 'में है। मनुष्य का श्रद्धायुक्त होना सत्य का धारण करना है।

    दृष्टवा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापति:
    अश्रद्धामनृतेऽदधाच्छ्रद्धां सत्ये प्रजापति:
                                    यजुर्वेद १९/७७
    हमने पीछे लिखा है कि सत्यधारण का नाम श्रद्धा है। इस मन्त्र में अर्थों पर दृष्टि डालिये आपको हमारे कथन की पुष्टि मिलेगी। प्रमाण आदि से सुपरीक्षित, पक्षपात रहित सत्य ही श्रद्धा करने और मानने योग्य है।असत्य =अनृत= प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्ध , पक्षपातपूर्ण का त्याग करना चाहिए। सच्चा श्रद्धालु वही है जो सत्य के ग्रहण करने और असत्य के त्यागने में सदा तत्पर रहता है।
    सत्य और असत्य इन दोनों के रूप=लक्षण=चिन्ह पृथक्- पृथक् हैं। सत्य ऋजु=सरल और सृष्टि नियम के अनुकूल होता है। सत्याचरण करने से आत्मा में उत्साह पैदा होता है। असत्य कुटिल टेढ़ा होता है और वस्तु स्थिति के प्रतिकूल होता है। सत्याचरण करते समय चित्त में लज्जा, संकोच और भय उत्पन्न होते हैं।
    लज्जा संकोच और भय मानव हमें असत्य आचरण से रोकते हैं। लज्जा संकोच भाई ने ही असत्य को अश्रद्धेय सिद्ध कर दिया। उसके विपरीत सत्याचरण से होने वाले उत्साह ने सत्य को श्रद्धा की वस्तु बना दिया।
     

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