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  • यजुर्वेद - अध्याय 37/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - विराड् ब्राह्मी गायत्री स्वरः - षड्जः
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    इय॒त्यग्र॑ऽआसीन्म॒खस्य॑ ते॒ऽद्य शिरो॑ राध्यासं देव॒यज॑ने पृथि॒व्याः।म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शीर्ष्णे॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इय॑ति। अग्रे॑। आ॒सी॒त्। म॒खस्य॑। ते॒। अ॒द्य। शिरः॑। रा॒ध्या॒स॒म्। दे॒व॒यज॑न॒ इति॑ देव॒ऽयज॑ने। पृ॒थि॒व्याः ॥ म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इयत्यग्रेऽआसीन्मखस्य तेद्य शिरो राध्यासन्देवयजने पृथिव्याः । मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इयति। अग्रे। आसीत्। मखस्य। ते। अद्य। शिरः। राध्यासम्। देवयजन इति देवऽयजने। पृथिव्याः॥ मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 37; मन्त्र » 5
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    Meaning -
    O learned person, at first I accept thee for due reverence, for the excellence of association. Thy sacrifice is well-merited. This day, on the Earth, I make thee duly prosper by honouring so many scholars.

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