Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1002
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
5
इ꣢न्द्रो꣣ म꣡दा꣢य वावृधे꣣ श꣡व꣢से वृत्र꣣हा꣡ नृ꣢꣯भिः । त꣢꣫मिन्म꣣ह꣢त्स्वा꣣जि꣢षू꣣ति꣡मर्भे꣢꣯ हवामहे꣣ स꣡ वाजे꣢꣯षु꣣ प्र꣡ नो꣡ऽविषत् ॥१००२॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्रः꣢꣯ । म꣡दा꣢꣯य । वा꣣वृधे । श꣡व꣢꣯से । वृ꣣त्रहा꣢ । वृ꣡त्र । हा꣡ । नृ꣡भिः꣢꣯ । तम् । इत् । म꣣ह꣡त्सु꣢ । आ꣣जि꣡षु꣢ । ऊ꣣ति꣢म् । अ꣡र्भे꣢꣯ । ह꣣वामहे । सः꣢ । वा꣡जे꣢꣯षु । प्र । नः꣣ । अविषत् ॥१००२॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो मदाय वावृधे शवसे वृत्रहा नृभिः । तमिन्महत्स्वाजिषूतिमर्भे हवामहे स वाजेषु प्र नोऽविषत् ॥१००२॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्रः । मदाय । वावृधे । शवसे । वृत्रहा । वृत्र । हा । नृभिः । तम् । इत् । महत्सु । आजिषु । ऊतिम् । अर्भे । हवामहे । सः । वाजेषु । प्र । नः । अविषत् ॥१००२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1002
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment
विषय - प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ४११ क्रमाङ्क पर परमात्मा, जीवात्मा, राजा और सेनापति के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ मन रूप सेनापति को प्रबोधन दिया गया है।
पदार्थ -
(वृत्रहा) पाप-नाशक (इन्द्रः) वीर मन (नृभिः) विजय की आकाङ्क्षावाले मनुष्यों द्वारा (मदाय) हर्ष के लिए और (शवसे) बल के लिए (वावृधे) बढ़ाया अर्थात् उत्साहित किया जाता है। (ऊतिम्) रक्षक (तम् इत्) उस मन को ही, हम (महत्सु) बड़े (आजिषु) आन्तरिक और बाह्य संग्रामों में तथा (अल्पे) छोटे संग्राम में (हवामहे) पुकारते हैं। (सः) वह मन (वाजेषु) उन युद्धों में (नः) हमारी (अविषत्) रक्षा करे ॥१॥
भावार्थ - मनुष्य का मन यदि मर गया तो वह जीवन में कोई भी उन्नति नहीं कर सकता और मन यदि उत्साह से भर गया तो सब विघ्नों को और शत्रुओं को तिरस्कृत करता हुआ वह सब जगह विजय प्राप्त करता है ॥१॥
इस भाष्य को एडिट करें