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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1004
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
3
य꣢दु꣣दी꣡र꣢त आ꣣ज꣡यो꣢ धृष्णवे धीयते धनम् । युङ्क्ष्वा मदच्युता हरी कं हनः कं वसौ दधोऽस्माँ इन्द्र वसौ दधः ॥१००४॥
स्वर सहित पद पाठयत् । उ꣣दी꣡र꣢ते । उ꣣त् । ई꣡रते꣢꣯ । आ꣣ज꣡यः꣢ । धृ꣣ष्ण꣡वे꣢ । धी꣣यते । ध꣡न꣢꣯म् । यु꣣ङ्क्ष्व꣢ । म꣣दच्यु꣡ता꣢ । म꣣द । च्यु꣡ता꣢꣯ । हरी꣢꣯इ꣡ति꣢ । कम् । ह꣡नः꣢꣯ । कम् । व꣡सौ꣢꣯ । द꣣धः । अस्मा꣢न् । इ꣣न्द्र । व꣡सौ꣢꣯ । द꣣धः ॥१००४॥
स्वर रहित मन्त्र
यदुदीरत आजयो धृष्णवे धीयते धनम् । युङ्क्ष्वा मदच्युता हरी कं हनः कं वसौ दधोऽस्माँ इन्द्र वसौ दधः ॥१००४॥
स्वर रहित पद पाठ
यत् । उदीरते । उत् । ईरते । आजयः । धृष्णवे । धीयते । धनम् । युङ्क्ष्व । मदच्युता । मद । च्युता । हरीइति । कम् । हनः । कम् । वसौ । दधः । अस्मान् । इन्द्र । वसौ । दधः ॥१००४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1004
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - तृतीय ऋचा की पूर्वार्चिक में ४१४ क्रमाङ्क पर जीवात्मा, राजा और सेनापति के विषय में व्याख्या हो चुकी है। यहाँ प्रसङ्गागत मन का विषय ही वर्णित है।
पदार्थ -
(यत्) जब (आजयः) आन्तरिक या बाह्य देवासुरसंग्राम (उदीरते) उठते हैं, तब (धृष्णवे) जो शत्रुओं को परास्त करनेवाला है, उसी मनुष्य को (धनम्) ऐश्वर्य (धीयते) मिलता है। हे (इन्द्र) विघ्नों को विदीर्ण करनेवाले मेरे वीर मन ! तू (मदच्युता) शत्रुओं के मद को चूर करनेवाले (हरी) ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय-रूप घोड़ों को (युङ्क्ष्व) ज्ञान के ग्रहण और कर्म के करने के लिए नियुक्त कर। (कम्) किसी को अर्थात् शत्रु को (हनः) मार, (कम्) किसी को अर्थात् मित्र को (वसौ दधः) ऐश्वर्य में स्थापित कर। (अस्मान्) हम मित्रों को (वसौ दधः) ऐश्वर्य में स्थापित कर अर्थात् ऐश्वर्य प्रदान कर ॥३॥
भावार्थ - आन्तरिक या बाह्य युद्धों के उपस्थित होने पर मन को उत्साहित करके, ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को अपने-अपने विषयों में भली-भाँति नियुक्त करके, ठीक-ठीक शत्रुओं की गतिविधि जानकर, उन पर प्रहार करके सब शत्रुओं को पराजित करना और मित्रों को सत्कृत करना चाहिए ॥३॥
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