Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1007
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
7

ता꣡ अ꣢स्य꣣ न꣡म꣢सा꣣ स꣡हः꣢ सप꣣र्य꣢न्ति꣣ प्र꣡चे꣢तसः । व्र꣣ता꣡न्य꣢स्य सश्चिरे पु꣣रू꣡णि꣢ पू꣣र्व꣡चि꣢त्तये꣣ व꣢स्वी꣣र꣡नु꣢ स्व꣣रा꣡ज्य꣢म् ॥१००७॥

स्वर सहित पद पाठ

ताः । अ꣣स्य । न꣡म꣢꣯सा । स꣡हः꣢꣯ । स꣣प꣡र्यन्ति꣢ । प्र꣡चे꣢꣯तसः । प्र । चे꣣तसः । व्रता꣡नि꣢ । अ꣣स्य । सश्चिरे । पुरू꣡णि꣢ । पू꣣र्व꣡चि꣢त्तये । पू꣣र्व꣢ । चि꣣त्तये । वस्वीः । अ꣡नु꣢꣯ । स्व꣣रा꣡ज्य꣢म् । स्व꣣ । रा꣡ज्य꣢꣯म् ॥१००७॥


स्वर रहित मन्त्र

ता अस्य नमसा सहः सपर्यन्ति प्रचेतसः । व्रतान्यस्य सश्चिरे पुरूणि पूर्वचित्तये वस्वीरनु स्वराज्यम् ॥१००७॥


स्वर रहित पद पाठ

ताः । अस्य । नमसा । सहः । सपर्यन्ति । प्रचेतसः । प्र । चेतसः । व्रतानि । अस्य । सश्चिरे । पुरूणि । पूर्वचित्तये । पूर्व । चित्तये । वस्वीः । अनु । स्वराज्यम् । स्व । राज्यम् ॥१००७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1007
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
Acknowledgment

पदार्थ -
प्रथम—सूर्य-किरणों के पक्ष में। (प्रचेतसः) प्रज्ञापक (ताः) वे सूर्य-किरणें (नमसा) चन्द्र आदि लोकों के प्रति झुकने के द्वारा (अस्य) इस सूर्यरूप इन्द्र के (सहः) बल को (सपर्यन्ति) बढ़ाती हैं और (पूर्वचित्तये) सूर्य के क्षितिज में उदय होने से पूर्व ही उसका ज्ञान कराने के लिए (अस्य) इस सूर्य के (पुरूणि) बहुत से (व्रतानि) प्रकाशप्रदान आदि कर्मों को (सश्चिरे) कर देती हैं। इस प्रकार (वस्वीः) वे निवासक किरणें (स्वराज्यम्) सूर्य के अपने साम्राज्य को (अनु) अनुक्रम से बढ़ाती हैं ॥ द्वितीय—सेना के पक्ष में। (प्रचेतसः) प्रकृष्ट चित्तवाली (ताः) वे सेनाएँ (नमसा) नमस्कार के साथ (अस्य) इस सेनाध्यक्षरूप इन्द्र के (सहः) बल की (सपर्यन्ति) प्रशंसा करती हैं और (अस्य) इस सेनाध्यक्ष को (पूर्वचित्तये) पहले ही ज्ञान करा देने के लिए (पुरूणि) बहुत से (व्रतानि) शत्रुओं में भय उत्पन्न करना आदि कर्मों को (सश्चिरे) कर देती हैं। इस प्रकार (वस्वीः) अपने राष्ट्र के निवास में कारणभूत वे सेनाएँ (स्वराज्यम्) स्वराज्य के (अनु) अनुकूल आचरण करती हैं ॥३॥

भावार्थ - सूर्य-किरणें जैसे सूर्य के साथ मिलकर और सेनाएँ जैसे सेनापति के साथ मिल कर स्वराज्य को बढ़ाती हैं, वैसे ही मनुष्यों को चाहिए कि परमेश्वर के साथ मिलकर अपने आध्यात्मिक स्वराज्य को बढ़ाएँ ॥३॥ इस खण्ड में मन को प्रबुद्ध करने एवं सूर्य तथा सूर्यरश्मियों के स्वराज्य के वर्णन द्वारा प्रजाओं के आध्यात्मिक स्वराज्य की सूचना देने के कारण इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ षष्ठ अध्याय में पञ्चम खण्ड समाप्त ॥

इस भाष्य को एडिट करें
Top