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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1029
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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आ꣡ ति꣢ष्ठ वृत्रह꣣न्र꣡थं꣢ यु꣣क्ता꣢ ते꣣ ब्र꣡ह्म꣢णा꣣ ह꣡री꣢ । अ꣡र्वाची꣢न꣣ꣳ सु꣢ ते꣣ म꣢नो꣣ ग्रा꣡वा꣢ कृणोतु व꣣ग्नु꣡ना꣢ ॥१०२९॥

स्वर सहित पद पाठ

आ । ति꣣ष्ठ । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । र꣡थ꣢꣯म् । यु꣣क्ता꣢ । ते꣣ । ब्र꣡ह्म꣢꣯णा । हरी꣣इ꣡ति꣢ । अ꣣र्वाची꣡न꣢म् । अ꣣र्व । अची꣡न꣢म् । सु । ते꣣ । म꣡नः꣢꣯ । ग्रा꣡वा꣢꣯ । कृ꣣णोतु । वग्नु꣡ना꣢ ॥१०२९॥


स्वर रहित मन्त्र

आ तिष्ठ वृत्रहन्रथं युक्ता ते ब्रह्मणा हरी । अर्वाचीनꣳ सु ते मनो ग्रावा कृणोतु वग्नुना ॥१०२९॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । तिष्ठ । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । रथम् । युक्ता । ते । ब्रह्मणा । हरीइति । अर्वाचीनम् । अर्व । अचीनम् । सु । ते । मनः । ग्रावा । कृणोतु । वग्नुना ॥१०२९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1029
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 23; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 7; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
हे (वृत्रहन्) पाप, विघ्न आदि के विनाशक जीवात्मन् ! तू (रथम्) नवीन शरीर-रूप रथ पर (आ तिष्ठ) आकर बैठ। (ब्रह्मणा) मुझ परमेश्वर ने (ते) तेरे लिए (हरी) प्राण-अपान वा ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय (युक्ता) तुझमें नियुक्त किये हैं। कुमारावस्था में गुरुकुल में प्रविष्ट होने के पश्चात् (ग्रावा) विद्वान् उपदेष्टा गुरु (वग्नुना) उपदेश-रूप शब्द से (ते मनः) तेरे मन को (अर्वाचीनम्) धर्म के अभिमुख (सु कृणोतु) भली-भाँति करे ॥२॥

भावार्थ - जीवात्मा माता के गर्भ में प्रवेश करके जन्म लेकर माता और पिता जी की गोद में खेलता हुआ उनके सान्निध्य से प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त कर कुमार अवस्था में यथोचित समय पर गुरुकुल में जाकर गुरुओं से शास्त्राध्ययन करता हुआ मन को धर्म में लगाए ॥२॥

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