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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1051
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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त्व꣡ꣳ सूर्ये꣢꣯ न꣣ आ꣡ भ꣢ज꣣ त꣢व꣣ क्र꣢त्वा꣣ त꣢वो꣣ति꣡भिः꣢ । अ꣡था꣢ नो꣣ व꣡स्य꣢सस्कृधि ॥१०५१॥

स्वर सहित पद पाठ

त्वम् । सू꣡र्ये꣢꣯ । नः꣣ । आ꣢ । भ꣣ज । त꣡व꣢꣯ । क्र꣡त्वा꣢꣯ । त꣡व꣢꣯ । ऊ꣣ति꣡भिः꣢ । अ꣡थ꣢꣯ । नः꣣ । व꣡स्य꣢꣯सः । कृ꣣धि ॥१०५१॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वꣳ सूर्ये न आ भज तव क्रत्वा तवोतिभिः । अथा नो वस्यसस्कृधि ॥१०५१॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वम् । सूर्ये । नः । आ । भज । तव । क्रत्वा । तव । ऊतिभिः । अथ । नः । वस्यसः । कृधि ॥१०५१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1051
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 5
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 5
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पदार्थ -
हे सोम अर्थात् जगत्स्रष्टा परमात्मन् वा राष्ट्र के स्रष्टा राजन् ! (त्वम्) आप (तव क्रत्वा) अपने कर्म वा प्रकृष्ट ज्ञान से, (तव ऊतिभिः) और अपनी रक्षाओं से (सूर्ये) सूर्यलोक के समान प्रकाशमय एवं सब उन्नतियों से युक्त राष्ट्र में (नः) हमें (आ भज) भागी बनाओ। (अथ) और उसके अनन्तर (नः) हमें (वस्यसः) अतिशय ऐश्वर्यवान् (कृधि) करो ॥५॥

भावार्थ - यदि परमात्मा की कृपा, राजा का उद्योग, और प्रजाजनों का पुरुषार्थ हो, तो राष्ट्र में सूर्य के समान उन्नति का प्रकाश सर्वत्र फैल जाए ॥५॥

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