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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1055
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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त्वां꣢ य꣣ज्ञै꣡र꣢वीवृध꣣न्प꣡व꣢मान꣣ वि꣡ध꣢र्मणि । अ꣡था꣢ नो꣣ व꣡स्य꣢सस्कृधि ॥१०५५॥

स्वर सहित पद पाठ

त्वा꣢म् । य꣣ज्ञैः꣢ । अ꣣वीवृधन् । प꣡व꣢꣯मान । वि꣡ध꣢꣯र्मणि । वि । ध꣣र्मणि । अ꣡थ꣢꣯ । नः । व꣡स्य꣢꣯सः । कृ꣣धि ॥१०५५॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वां यज्ञैरवीवृधन्पवमान विधर्मणि । अथा नो वस्यसस्कृधि ॥१०५५॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वाम् । यज्ञैः । अवीवृधन् । पवमान । विधर्मणि । वि । धर्मणि । अथ । नः । वस्यसः । कृधि ॥१०५५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1055
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 9
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पदार्थ -
हे (पवमान) जन-मानस को पवित्रता देनेवाले, क्रियाशील परमात्मन् वा राजन् ! (विधर्मणि) विशेष-धर्म-युक्त अन्तरात्मा में वा राष्ट्र में (त्वाम्) आप परमात्मा वा राजा को (यज्ञैः) उपासनायज्ञों वा राष्ट्रयज्ञों से प्रजाएँ (अवीवृधन्) बढ़ाती हैं। (अथ) अतः, आप (नः) हमें (वस्यसः) अतिशय ऐश्वर्यवान् (कृधि) कर दीजिए ॥९॥

भावार्थ - परमेश्वर को उपासना द्वारा अन्तरात्मा में बढ़ाकर और राजा को राष्ट्रसेवा रूप यज्ञों से राष्ट्र में बढ़ाकर उनकी सहायता से प्राप्त कीर्तियों तथा ऐश्वर्यों से प्रजाजन यशस्वी और ऐश्वर्यवान् होवें ॥९॥

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