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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1065
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - अग्निः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
3
भ꣡रा꣢मे꣣ध्मं꣢ कृ꣣ण꣡वा꣢मा ह꣣वी꣡ꣳषि꣢ ते चि꣣त꣡य꣢न्तः꣣ प꣡र्व꣢णापर्वणा व꣣य꣢म् । जी꣣वा꣡त꣢वे प्रत꣣रा꣡ꣳ सा꣢ध꣣या धि꣡योऽग्ने꣢꣯ स꣣ख्ये꣡ म रि꣢꣯षामा व꣣यं꣡ तव꣢꣯ ॥१०६५॥
स्वर सहित पद पाठभ꣡रा꣢꣯म । इ꣣ध्म꣢म् । कृ꣣ण꣡वा꣢म । ह꣣वी꣡ꣳषि꣢ । ते꣣ । चित꣡य꣢न्तः । प꣡र्व꣢꣯णापर्वणा । प꣡र्व꣢꣯णा । प꣣र्वणा । वय꣣म् । जी꣣वा꣡त꣢वे । प्र꣣तरा꣢म् । सा꣣धय । धि꣡यः꣢꣯ । अ꣡ग्ने꣢꣯ । स꣣ख्ये꣢ । स꣣ । ख्ये꣢ । मा । रि꣣षाम । वय꣢म् । त꣡व꣢꣯ ॥१०६५॥
स्वर रहित मन्त्र
भरामेध्मं कृणवामा हवीꣳषि ते चितयन्तः पर्वणापर्वणा वयम् । जीवातवे प्रतराꣳ साधया धियोऽग्ने सख्ये म रिषामा वयं तव ॥१०६५॥
स्वर रहित पद पाठ
भराम । इध्मम् । कृणवाम । हवीꣳषि । ते । चितयन्तः । पर्वणापर्वणा । पर्वणा । पर्वणा । वयम् । जीवातवे । प्रतराम् । साधय । धियः । अग्ने । सख्ये । स । ख्ये । मा । रिषाम । वयम् । तव ॥१०६५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1065
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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विषय - अगले मन्त्र में पुनः आचार्य और शिष्य का विषय वर्णित करते हैं।
पदार्थ -
हे आचार्यप्रवर ! (वयम्) आपके शिष्य हम (इध्मम्) समिधा (भराम) लायें अर्थात् समित्पाणि होकर आपके समीप आएँ। (ते) आपके लिए (हवींषि) समर्पण (कृणवाम) करें और फिर (पर्वणा पर्वणा) एक-एक खण्ड करके (चितयन्तः) पूर्ण ज्ञानी हो जाएँ। आप (जीवातवे) जीवन के लिए (प्रतराम्) अत्यन्त रूप से (धियः) हमारी बुद्धियों को (साधय) परिष्कृत कीजिए। हे (अग्ने) ज्ञानी आचार्य ! (वयम्) हम शिष्य (तव सख्ये) आपके साहचर्य में रहकर (मा रिषाम) निन्दा आदि से होनेवाली हिंसा को न प्राप्त हों ॥२॥
भावार्थ - आचार्य के प्रति जो सर्वथा समर्पित हो जाते हैं, वे ही विद्वान् और सदाचारी होते हैं। एक-एक बूँद से जैसे घड़ा भरता है, वैसे ही कण-कण करके विद्या ग्रहण कर पण्डित बन जाते हैं ॥२॥
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