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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1066
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - अग्निः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
4
श꣣के꣡म꣢ त्वा स꣣मि꣡ध꣢ꣳ सा꣣ध꣢या꣣ धि꣢य꣣स्त्वे꣢ दे꣣वा꣢ ह꣣वि꣡र꣢द꣣न्त्या꣡हु꣢तम् । त्व꣡मा꣢दि꣣त्या꣡ꣳआ व꣢꣯ह꣣ तान्ह्यु꣢३꣱श्म꣡स्यग्ने꣢꣯ स꣣ख्ये꣡ मा रि꣢꣯षामा व꣣यं꣡ तव꣢꣯ ॥१०६६॥
स्वर सहित पद पाठश꣣के꣡म꣢ । त्वा꣣ । समि꣡ध꣢म् । स꣣म् । इ꣡ध꣢꣯म् । सा꣣ध꣡य꣢ । धि꣡यः꣢꣯ । त्वे꣡इति꣢ । दे꣣वाः꣢ । ह꣣विः꣢ । अ꣣दन्ति । आ꣡हु꣢꣯तम् । आ । हु꣣तम् । त्व꣢म् । आ꣣दित्या꣢न् । आ꣣ । दित्या꣢न् । आ । व꣣ह । ता꣢न् । हि । उ꣣श्म꣡सि꣢ । अ꣡ग्ने꣢꣯ । स꣣ख्ये꣢ । स꣣ । ख्ये꣢ । मा । रि꣣षाम । वय꣢म् । त꣡व꣢꣯ ॥१०६६॥
स्वर रहित मन्त्र
शकेम त्वा समिधꣳ साधया धियस्त्वे देवा हविरदन्त्याहुतम् । त्वमादित्याꣳआ वह तान्ह्यु३श्मस्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥१०६६॥
स्वर रहित पद पाठ
शकेम । त्वा । समिधम् । सम् । इधम् । साधय । धियः । त्वेइति । देवाः । हविः । अदन्ति । आहुतम् । आ । हुतम् । त्वम् । आदित्यान् । आ । दित्यान् । आ । वह । तान् । हि । उश्मसि । अग्ने । सख्ये । स । ख्ये । मा । रिषाम । वयम् । तव ॥१०६६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1066
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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विषय - आगे फिर आचार्य और शिष्य का ही विषय कहा गया है।
पदार्थ -
हे आचार्यप्रवर ! हम शिष्य (त्वा) आपको (समिधं शकेम) ज्ञान-दानार्थ प्रदीप्त कर सकें। आप (धियः) हमारी बुद्धियों को (साधय) परिष्कृत करो। (त्वे) आपसे (आहुतम्) दिये गये (हविः) ग्राह्य ज्ञान को (देवाः) प्रमुदित शिष्य (अदन्ति) ग्रहण करते हैं। आप (आदित्यान्) आदित्य ब्रह्मचारी (आवह) समाज को प्राप्त कराओ, (तान् हि) उन्हें हम (अश्मसि) चाह रहे हैं। हे (अग्ने) विद्वन्, शिक्षणकला के ज्ञाता आचार्य ! (वयम्) हम शिष्य (तव सख्ये) आपके साहचर्य में (मा रिषाम) कभी दोषयुक्त वा क्षतिग्रस्त न हों ॥३॥
भावार्थ - शिष्यों की समर्पण-रूप समिधा से जब आचार्य प्रदीप्त हो जाता है, तभी वह शिष्यों के साथ अन्तरङ्गता स्थापित करके अपनी कमायी हुई सब विद्या उन्हें दे देता है और उनका चारित्रिक विकास भी करता है ॥३॥ इस खण्ड में जीवात्मा के उद्बोधनपूर्वक परमात्मा, जीवात्मा, ब्रह्मानन्द एवं मोक्षप्राप्ति का वर्णन, आचार्य-शिष्य विषय का वर्णन और प्रसङ्गतः राजा के विषय का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ सप्तम अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
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