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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1070
ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
5
भि꣣न्धि꣢꣫ विश्वा꣣ अ꣢प꣣ द्वि꣢षः꣣ प꣢रि꣣ बा꣡धो꣢ ज꣣ही꣡ मृधः꣢꣯ । व꣡सु꣢ स्पा꣣र्हं꣡ तदा भ꣢꣯र ॥१०७०॥
स्वर सहित पद पाठभि꣣न्धि꣢ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । अ꣡प꣢꣯ । द्वि꣡षः꣢꣯ । प꣡रि꣢꣯ । बा꣡धः꣢꣯ । ज꣣हि꣢ । मृ꣡धः꣢꣯ । व꣡सु꣢꣯ । स्पा꣣र्ह꣢म् । तत् । आ । भ꣣र ॥१०७०॥
स्वर रहित मन्त्र
भिन्धि विश्वा अप द्विषः परि बाधो जही मृधः । वसु स्पार्हं तदा भर ॥१०७०॥
स्वर रहित पद पाठ
भिन्धि । विश्वाः । अप । द्विषः । परि । बाधः । जहि । मृधः । वसु । स्पार्हम् । तत् । आ । भर ॥१०७०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1070
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में १३४ क्रमाङ्क पर परमात्मा, राजा और आचार्य को सम्बोधित की गयी थी। यहाँ अपने अन्तरात्मा को उद्बोधन दे रहे हैं।
पदार्थ -
हे इन्द्र अर्थात् मेरे वीर अन्तरात्मन् ! तू (विश्वाः द्विषः) सब द्वेष करनेवाली शत्रु-सेनाओं को (अपभिन्धि) चीर दे, (बाधः) बाधा डालनेवाले (मृधः) हिंसकों को (परि जहि) चारों ओर नष्ट कर दे। जो (स्पाहर्म्) चाहने योग्य (वसु) दिव्य तथा भौतिक धन है, (तत्) उसका (आ भर) उपार्जन कर ॥१॥ यहाँ एक कर्ता कारक के साथ अनेक क्रियाओं का योग होने से दीपक अलङ्कार है ॥१॥
भावार्थ - मनुष्य का अन्तरात्मा यदि प्रबुद्ध है, तो वह सब कुछ सिद्ध कर सकता है ॥१॥
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