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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1151
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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ता꣢ नो꣣ वा꣡ज꣢वती꣣रि꣡ष꣢ आ꣣शू꣡न्पि꣢पृत꣣म꣡र्व꣢तः । ए꣡न्द्र꣢म꣣ग्निं꣢ च꣣ वो꣡ढ꣢वे ॥११५१॥

स्वर सहित पद पाठ

ता । नः꣣ । वा꣡ज꣢꣯वतीः । इ꣡षः꣢꣯ । आ꣣शू꣢न् । पि꣣पृतम् । अ꣡र्व꣢꣯तः । आ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । अ꣣ग्नि꣢म् । च꣣ । वो꣡ढ꣢꣯वे ॥११५१॥


स्वर रहित मन्त्र

ता नो वाजवतीरिष आशून्पिपृतमर्वतः । एन्द्रमग्निं च वोढवे ॥११५१॥


स्वर रहित पद पाठ

ता । नः । वाजवतीः । इषः । आशून् । पिपृतम् । अर्वतः । आ । इन्द्रम् । अग्निम् । च । वोढवे ॥११५१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1151
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
हे इन्द्र-अग्नि अर्थात् वायु और बिजली ! (ता) वे तुम दोनों (वाजवतीः) बलसहित (इषः) अभीष्ट अन्न-धनादि को और (आशून्) शीघ्रगामी (अर्वतः) भूमि, जल एवं अन्तरिक्ष में चलनेवाले यानों तथा यन्त्रों को (पिपृतम्) प्रदान करो। (इन्द्रम्) वायु को (अग्निं च) और बिजली को, हम (वोढवे) पदार्थों को ढोने के लिए यान आदियों में (आ) प्रयुक्त करें ॥३॥

भावार्थ - परमेश्वर का ही यह महत्त्व है कि उसने ऐसे वायु और बिजली रचे हैं, जिनसे बहुत से कार्य सिद्ध किये जा सकते हैं ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा-जीवात्मा, मोक्ष एवं परमात्मा से रचित भौतिक अग्नि, वायु तथा विद्युत् का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ अष्टम अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥

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