Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1152
ऋषिः - सिकता निवावरी
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
5
प्रो꣡ अ꣢यासी꣣दि꣢न्दु꣣रि꣡न्द्र꣢स्य निष्कृ꣣त꣢꣫ꣳ सखा꣣ स꣢ख्यु꣣र्न꣡ प्र मि꣢꣯नाति स꣣ङ्गि꣡र꣢म् । म꣡र्य꣢ इव युव꣣ति꣢भिः꣣ स꣡म꣢र्षति꣣ सो꣡मः꣢ क꣣ल꣡शे꣢ श꣣त꣡या꣢म्ना प꣣था꣢ ॥११५२॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣡ । उ꣣ । अयासीत् । इ꣡न्दुः । ꣢꣯ इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । नि꣣ष्कृत꣡म् । निः꣣ । कृत꣢म् । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ । स꣡ख्युः꣢꣯ । स । ख्युः꣣ । न꣢ । प्र । मि꣣नाति । संगि꣡र꣢म् । स꣣म् । गि꣡र꣢꣯म् । म꣡र्यः꣢꣯ । इ꣣व । युवति꣡भिः꣢ । सम् । अ꣣र्षति । सो꣡मः꣢꣯ । क꣣ल꣡शे꣢ । श꣣त꣡या꣢म्ना । श꣣त꣢ । या꣣म्ना । पथा꣢ ॥११५२॥१
स्वर रहित मन्त्र
प्रो अयासीदिन्दुरिन्द्रस्य निष्कृतꣳ सखा सख्युर्न प्र मिनाति सङ्गिरम् । मर्य इव युवतिभिः समर्षति सोमः कलशे शतयाम्ना पथा ॥११५२॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । उ । अयासीत् । इन्दुः । इन्द्रस्य । निष्कृतम् । निः । कृतम् । सखा । स । खा । सख्युः । स । ख्युः । न । प्र । मिनाति । संगिरम् । सम् । गिरम् । मर्यः । इव । युवतिभिः । सम् । अर्षति । सोमः । कलशे । शतयाम्ना । शत । याम्ना । पथा ॥११५२॥१
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1152
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment
विषय - प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ५५७ क्रमाङ्क पर जीवात्मा और परमात्मा की मित्रता के विषय में हो चुकी है। यहाँ सोम ओषधि के रस का विषय वर्णित करते हैं।
पदार्थ -
(इन्दुः) सोम ओषधि का रस (इन्द्रस्य) यजमान के (निष्कृतम्) घर में (प्र उ अयासीत्) पहुँचता है। (सखा) मित्रतुल्य सोमरस (सख्युः) अपने मित्र यजमान के (संगिरम्) यज्ञ को (न प्रमिनाति) भङ्ग नहीं करता, प्रत्युत सिद्ध करता है। (सोमः) सोमरस (शतयामना पथा) दशापवित्र नामक छन्नी के सौ छिद्रोंवाले मार्ग से छनकर (कलशे) द्रोणकलश में (समर्षति) जल की लहरियों के साथ मिलता है, (मर्यः इव युवतिभिः) जैसे मनुष्य घर की युवतियों के साथ (समर्षति) मिलता अर्थात् यथायोग्य व्यवहार करता है ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ - जैसे सोम ओषधि का रस सोमयाग को सिद्ध करता है, वैसे ही मनुष्यों को व्यवहार-यज्ञ और उपासना-यज्ञ सिद्ध करना चाहिए ॥१॥
इस भाष्य को एडिट करें