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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1175
ऋषिः - प्रतर्दनो दैवोदासिः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
5
शि꣡शुं꣢ जज्ञा꣣न꣡ꣳ ह꣢र्य꣣तं꣡ मृ꣢जन्ति शु꣣म्भ꣢न्ति꣣ वि꣡प्रं꣢ म꣣रु꣡तो꣢ ग꣣णे꣡न꣢ । क꣣वि꣢र्गी꣣र्भिः꣡ काव्ये꣢꣯ना क꣣विः꣡ सन्त्सोमः꣢꣯ प꣣वि꣢त्र꣣म꣡त्ये꣢ति꣣ रे꣡भ꣢न् ॥११७५॥
स्वर सहित पद पाठशि꣡शु꣢꣯म् । ज꣣ज्ञान꣢म् । ह꣣र्यत꣢म् । मृ꣣जन्ति । शुम्भ꣡न्ति꣢ । वि꣡प्र꣢꣯म् । वि । प्र꣣म् । मरु꣡तः꣢ । ग꣣णे꣡न꣢ । क꣣विः꣢ । गी꣣र्भिः꣢ । का꣡व्ये꣢꣯न । क꣣विः꣢ । सन् । सो꣡मः꣢꣯ । प꣣वि꣡त्र꣢म् । अ꣡ति꣢꣯ । ए꣣ति । रे꣡भ꣢꣯न् ॥११७५॥
स्वर रहित मन्त्र
शिशुं जज्ञानꣳ हर्यतं मृजन्ति शुम्भन्ति विप्रं मरुतो गणेन । कविर्गीर्भिः काव्येना कविः सन्त्सोमः पवित्रमत्येति रेभन् ॥११७५॥
स्वर रहित पद पाठ
शिशुम् । जज्ञानम् । हर्यतम् । मृजन्ति । शुम्भन्ति । विप्रम् । वि । प्रम् । मरुतः । गणेन । कविः । गीर्भिः । काव्येन । कविः । सन् । सोमः । पवित्रम् । अति । एति । रेभन् ॥११७५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1175
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम मन्त्र में परमात्मा के आविर्भाव का वर्णन है।
पदार्थ -
(शिशुं जज्ञानम्) पैदा होते हुए शिशु के समान अन्तरात्मा में प्रकट होते हुए (हर्यतम्) उस प्रिय सोम परमात्मा को उपासक जन (मृजन्ति) स्तोत्रों से अलंकृत करते हैं। (विप्रम्) विशेषरूप से पूर्णता प्रदान करनेवाले उस मेधावी परमात्मा को (मरुतः) प्राण (गणेन) अपने तरङ्गसमूह से (शुम्भन्ति) शोभित करते हैं, (गीर्भिः) प्रेरक वाणियों से (कविः) दिव्य सन्देश देनेवाला और (काव्येन) वेदकाव्य से (कविः) काव्यकार (सन्) होता हुआ (सोमः) सन्मार्गप्रेरक परमेश्वर (रेभन्) उपदेश देता हुआ (पवित्रम् अत्येति) पवित्र हृदय को लाँघकर अन्तरात्मा में पहुँचता है ॥१॥ यहाँ ‘शिशुं जज्ञानम्’ में लुप्तोपमालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ - अपने अन्तरात्मा में परमेश्वर को प्रकट करके भक्तिभाव से परिपूर्ण स्तोत्रों द्वारा उसे अधिकाधिक अलंकृत और प्रसादित करना चाहिए ॥१॥
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