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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1193
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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वा꣣श्रा꣡ अ꣢र्ष꣣न्ती꣡न्द꣢वो꣣ऽभि꣢ व꣣त्सं꣢꣫ न मा꣣त꣡रः꣢ । द꣣धन्विरे꣡ गभ꣢꣯स्त्योः ॥११९३॥

स्वर सहित पद पाठ

वा꣣श्राः꣢ । अ꣣र्षन्ति । इ꣡न्द꣢꣯वः । अ꣣भि꣢ । व꣣त्स꣢म् । न । मा꣣त꣡रः꣢ । द꣣धन्विरे꣢ । ग꣡भ꣢꣯स्त्योः ॥११९३॥


स्वर रहित मन्त्र

वाश्रा अर्षन्तीन्दवोऽभि वत्सं न मातरः । दधन्विरे गभस्त्योः ॥११९३॥


स्वर रहित पद पाठ

वाश्राः । अर्षन्ति । इन्दवः । अभि । वत्सम् । न । मातरः । दधन्विरे । गभस्त्योः ॥११९३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1193
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 7
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पदार्थ -
(वाश्राः) रँभाती हुई (मातरः) गायें (वत्सं न) जैसे बछड़े की ओर जाती हैं, वैसे ही (वाश्राः) उपदेश देते हुए (इन्दवः) रस से भिगोनेवाले ब्रह्मानन्द-रस (वत्सम् अभि) प्रिय उपासक की ओर (अर्षन्ति) जाते हैं और (गभस्त्योः) बाहुओं में (दधन्विरे) धारण किये जाते हैं अर्थात् ब्रह्मानन्द-रसों की प्राप्ति होने पर उपासक भुजाओं से कर्म करने में संलग्न हो जाता है ॥७॥ यहाँ श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥७॥

भावार्थ - ब्रह्मानन्द भी सत्कर्मों के बिना शोभा नहीं पाते ॥७॥

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