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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 12
ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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दू꣣तं꣡ वो꣢ वि꣣श्व꣡वे꣢दसꣳ हव्य꣣वा꣢ह꣣म꣡म꣢र्त्यम् । य꣡जि꣢ष्ठमृञ्जसे गि꣣रा꣢ ॥१२॥

स्वर सहित पद पाठ

दू꣣त꣢म् । वः꣣ । विश्व꣡वे꣢दसम् । वि꣣श्व꣢ । वे꣣दसम् । हव्यवा꣡ह꣢म् । ह꣣व्य । वा꣡ह꣢꣯म् । अ꣡म꣢꣯र्त्यम् । अ । म꣣र्त्यम् । य꣡जि꣢꣯ष्ठम् । ऋ꣣ञ्जसे । गिरा꣢ ॥१२॥


स्वर रहित मन्त्र

दूतं वो विश्ववेदसꣳ हव्यवाहममर्त्यम् । यजिष्ठमृञ्जसे गिरा ॥१२॥


स्वर रहित पद पाठ

दूतम् । वः । विश्ववेदसम् । विश्व । वेदसम् । हव्यवाहम् । हव्य । वाहम् । अमर्त्यम् । अ । मर्त्यम् । यजिष्ठम् । ऋञ्जसे । गिरा ॥१२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 12
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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पदार्थ -
हे परमात्मन् ! (दूतम्) दूत अर्थात् सद्गुणों को हमारे पास लाने के लिए दूत के समान आचरण करनेवाले, (विश्ववेदसम्) पूर्वजन्म तथा इस जन्म में किये हुए सब कर्मों को जाननेवाले, (हव्यवाहम्) दातव्य कर्मफल प्राप्त करानेवाले, (अमर्त्यम्) अमर, (यजिष्ठम्) सबसे अधिक यज्ञकर्ता—महान् सृष्टिचक्रप्रवर्तनरूप यज्ञ के संचालक (वः) आपको, मैं (गिरा) वेदवाणी से (ऋञ्जसे) रिझाता हूँ ॥२॥

भावार्थ - मनुष्य शुभ या अशुभ जो भी कर्म करता है, परमेश्वर उसी क्षण उन्हें जान लेता है और समय आने पर उनका फल अवश्य देता है। बुढ़ापे और मृत्यु से रहित, सृष्टि-रूप यज्ञ के परम याज्ञिक परमेश्वर की हमें श्रद्धा के साथ वेदमन्त्रों के उच्चारणपूर्वक सदा वन्दना करनी चाहिए ॥२॥

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