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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 13
ऋषिः - प्रयोगो भार्गवः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
16
उ꣡प꣢ त्वा जा꣣म꣢यो꣣ गि꣢रो꣣ दे꣡दि꣢शतीर्हवि꣣ष्कृ꣡तः꣢ । वा꣣यो꣡रनी꣢꣯के अस्थिरन् ॥१३॥
स्वर सहित पद पाठउ꣡प꣢꣯ । त्वा꣣ । जाम꣡यः꣢ । गि꣡रः꣢꣯ । दे꣡दि꣢꣯शतीः । ह꣣विष्कृ꣡तः꣢ । ह꣣विः । कृ꣡तः꣢꣯ । वा꣣योः꣢ । अ꣡नी꣢꣯के । अ꣣स्थिरन् ॥१३॥
स्वर रहित मन्त्र
उप त्वा जामयो गिरो देदिशतीर्हविष्कृतः । वायोरनीके अस्थिरन् ॥१३॥
स्वर रहित पद पाठ
उप । त्वा । जामयः । गिरः । देदिशतीः । हविष्कृतः । हविः । कृतः । वायोः । अनीके । अस्थिरन् ॥१३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 13
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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विषय - मेरी वाणियाँ परमात्मा की महिमा का वर्णन कर रही हैं, यह कहते हैं।
पदार्थ -
हे अग्ने ! हे ज्योतिर्मय परमात्मन् ! (हविष्कृतः) अपने आत्मा को हवि बनाकर आपको समर्पित करनेवाले मुझ यजमान की (जामयः) बहिनें अर्थात् बहिनों के समान प्रिय और हितकर (गिरः) स्तुति-वाणियाँ (त्वा) आपका (देदिशतीः) पुनः पुनः अधिकाधिक बोध कराती हुई (वायोः) प्राणप्रद आपके (अनीके) समीप (उप अस्थिरन्) उपस्थित हुई हैं ॥३॥ इस मन्त्र में वाणियों में जामित्व (भगिनीत्व) के आरोप से रूपकालङ्कार है ॥३॥
भावार्थ - हे परमात्मन् ! आन्तरिक यज्ञ का अनुष्ठान करने की इच्छावाला मैं श्रद्धालु होकर अपने आत्मा, मन, प्राण आदि को हवि-रूप से आपको समर्पित करता हुआ स्तुति-वाणियों से आपके गुणों का कीर्तन कर रहा हूँ। मेरे प्रेमोपहार को स्वीकार कीजिए ॥३॥
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