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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1222
ऋषिः - सुकक्ष आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
त꣡मिन्द्रं꣢꣯ वाजयामसि म꣣हे꣢ वृ꣣त्रा꣢य꣣ ह꣡न्त꣢वे । स꣡ वृषा꣢꣯ वृष꣣भो꣡ भु꣢वत् ॥१२२२॥
स्वर सहित पद पाठत꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । वा꣣जयामसि । महे꣢ । वृ꣣त्रा꣡य꣢ । ह꣡न्त꣢꣯वे । सः꣣ । वृ꣡षा꣢꣯ । वृ꣣षभः꣡ । भु꣣वत् ॥१२२२॥
स्वर रहित मन्त्र
तमिन्द्रं वाजयामसि महे वृत्राय हन्तवे । स वृषा वृषभो भुवत् ॥१२२२॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । इन्द्रम् । वाजयामसि । महे । वृत्राय । हन्तवे । सः । वृषा । वृषभः । भुवत् ॥१२२२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1222
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ११९ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा के विषय में की जा चुकी है। यहाँ जीवात्मा का विषय कहते हैं।
पदार्थ -
(महे) बड़े (वृत्राय) विघ्न, विद्रोह, उपद्रव, पाप आदि रूप शत्रु का (हन्तवे) वध करने के लिए (तम्) अपने शरीर में अधिष्ठाता रूप से विद्यमान उस (इन्द्रम्) शत्रुविदारक जीवात्मा को, हम (वाजयामसि) बलवान् करते हैं। (वृषा) बलवान् (सः) वह जीवात्मा (वृषभः) सुख-सम्पदा की वर्षा करनेवाला (भुवत्) होवे ॥१॥
भावार्थ - अपने अन्तरात्मा को उत्साहित करके सभी बाह्य और आन्तरिक शत्रु जीते जा सकते हैं ॥१॥
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