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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1230
ऋषिः - कविर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
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इ꣡न्द्र꣢स्य सोम꣣ प꣡व꣢मान ऊ꣣र्मि꣡णा꣢ तवि꣣ष्य꣡मा꣢णो ज꣣ठ꣢रे꣣ष्वा꣡ वि꣢श । प्र꣡ नः꣢ पिन्व वि꣣द्यु꣢द꣣भ्रे꣢व꣣ रो꣡द꣢सी धि꣣या꣢ नो꣣ वा꣢जा꣣ꣳ उ꣡प꣢ माहि꣣ श꣡श्व꣢तः ॥१२३०॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । सो꣣म । प꣡वमा꣢꣯नः । ऊ꣣र्मि꣡णा꣢ । त꣣विष्य꣡मा꣢णः । ज꣣ठ꣡रे꣢षु । आ । वि꣣श । प्र꣢ । नः꣣ । पिन्व । विद्यु꣢त् । वि꣣ । द्यु꣢त् । अ꣣भ्रा꣢ । इ꣣व । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । धि꣣या꣢ । नः꣣ । वा꣡जा꣢꣯न् । उ꣡प꣢꣯ । मा꣣हि । श꣡श्व꣢꣯तः ॥१२३०॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्रस्य सोम पवमान ऊर्मिणा तविष्यमाणो जठरेष्वा विश । प्र नः पिन्व विद्युदभ्रेव रोदसी धिया नो वाजाꣳ उप माहि शश्वतः ॥१२३०॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्रस्य । सोम । पवमानः । ऊर्मिणा । तविष्यमाणः । जठरेषु । आ । विश । प्र । नः । पिन्व । विद्युत् । वि । द्युत् । अभ्रा । इव । रोदसीइति । धिया । नः । वाजान् । उप । माहि । शश्वतः ॥१२३०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1230
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 7; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
हे (सोम) रस के भण्डार परमात्मन् ! (ऊर्मिणा) आनन्द-तरङ्ग के साथ (पवमानः) प्रवाहित होते हुए, (तविष्यमाणः) वृद्धि करना चाहते हुए, आप (इन्द्रस्य) जीवात्मा के (जठरेषु) अन्दर (आविश) प्रवेश करो। आप (नः) हमारे लिए (रोदसी) द्यावापृथिवी के तुल्य वाणी और बुद्धि को (प्रपिन्व) दुहो, अर्थात् उनसे होनेवाले लाभ प्राप्त कराओ (विद्युत् अभ्रा इव) बिजली जैसे बादलों को दुहती है। (धिया) बुद्धि और कर्म से (नः) हमारे लिए (शश्वतः) बहुत से (वाजान्) बल, विज्ञान, ऐश्वर्य आदि का (उपमाहि) उपहार दो ॥३॥

भावार्थ - उपासनारूप कर्तव्यपालन से प्रसन्न हुआ परमेश्वर जीवात्मा को आनन्द की तरङ्गों में स्नान कराकर कृतार्थ करता है और सब प्रकार की सम्पदा उपहार में देता है ॥३॥

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