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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1277
ऋषिः - राहूगण आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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ए꣣ष꣢꣫ स्य मद्यो꣣ र꣡सोऽव꣢꣯ चष्टे दि꣣वः꣡ शिशुः꣢꣯ । य꣢꣫ इन्दु꣣र्वा꣢र꣣मा꣡वि꣢शत् ॥१२७७॥

स्वर सहित पद पाठ

ए꣣षः꣢ । स्यः । म꣡द्यः꣢꣯ । र꣡सः꣢꣯ । अ꣡व꣢꣯ । च꣣ष्टे । दिवः꣢ । शि꣡शुः꣢꣯ । यः । इ꣡न्दुः꣢꣯ । वा꣡र꣢꣯म् । आ꣡वि꣢꣯शत् । आ꣣ । अ꣡वि꣢꣯शत् ॥१२७७॥


स्वर रहित मन्त्र

एष स्य मद्यो रसोऽव चष्टे दिवः शिशुः । य इन्दुर्वारमाविशत् ॥१२७७॥


स्वर रहित पद पाठ

एषः । स्यः । मद्यः । रसः । अव । चष्टे । दिवः । शिशुः । यः । इन्दुः । वारम् । आविशत् । आ । अविशत् ॥१२७७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1277
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
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पदार्थ -
प्रथम—चन्द्र के पक्ष में। ग्रहण से मोक्ष के बाद के चन्द्रमा का वर्णन करते हैं— (एषः स्यः) यह वह (मद्यः) मोददायी, (रसः) चाँदनी का रस बरसानेवाला, (दिवः शिशुः) आकाश के शिशु के समान विद्यमान चन्द्रमा (अव चष्टे) पूर्णतः प्रकाशित हो गया है, (यः इन्दुः) जो चन्द्रमा पहले (वारम्) सूर्य और चन्द्रमा के मध्य पृथिवी के आ जाने से आवरण में (आविशत्) प्रविष्ट हो गया था ॥ द्वितीय—जीवात्मा के पक्ष में। (एषः स्यः) यह वह (मद्यः) आनन्दित करने योग्य, (रसः) रस पीनेवाला (दिवः शिशुः) तेजस्वी परमात्मा को पुत्र के समान प्रिय जीवात्मा (अवचष्टे) परमात्मा का दर्शन कर रहा है, (यः इन्दुः) जो जीवात्मा, पहले (वारम्) परमात्मा के दर्शन को रोकनेवाले भोग्य जगत् के प्रति (आविशत्) आकृष्ट था ॥४॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है। ‘दिवः शिशुः’ में लुप्तोपमा है। ‘रसः’ की रसवर्षक व रसपायी में लक्षणा है ॥४॥

भावार्थ - चन्द्रग्रहण पूर्णमासी को ही होता है। ग्रहणकाल में चन्द्रमा अंशतः या पूर्णतः अन्धकार से ढक जाता है। धीरे-धीरे उसका मोक्ष होता है। पूर्ण मोक्ष के पश्चात् वह पहले के समान पूर्ण चन्द्रमा के रूप में भासित होने लगता है। यह विज्ञानसम्मत प्राकृतिक घटना है, पौराणिक राहु-केतु का वृत्तान्त काल्पनिक ही है। वैसे ही जीवात्मा भी भोग्य जगत् के प्रति आकृष्ट होकर उससे ग्रसा जाता है। उससे मोक्ष के अनन्तर ही वह परमात्मा का साक्षात् कर पाता है ॥४॥

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