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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1326
ऋषिः - मनुराप्सवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
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प꣡व꣢स्व दे꣣व꣡वी꣢तय꣣ इ꣢न्दो꣣ धा꣡रा꣢भि꣣रो꣡ज꣢सा । आ꣢ क꣣ल꣢शं꣣ म꣡धु꣢मान्त्सोम नः सदः ॥१३२६॥

स्वर सहित पद पाठ

प꣡व꣢꣯स्व । दे꣣व꣡वी꣢तये । दे꣣व꣢ । वी꣣तये । इ꣡न्दो꣢꣯ । धा꣡रा꣢꣯भिः । ओ꣡ज꣢꣯सा । आ । क꣣ल꣡श꣢म् । म꣡धु꣢꣯मान् । सो꣣म । नः । सदः ॥१३२६॥


स्वर रहित मन्त्र

पवस्व देववीतय इन्दो धाराभिरोजसा । आ कलशं मधुमान्त्सोम नः सदः ॥१३२६॥


स्वर रहित पद पाठ

पवस्व । देववीतये । देव । वीतये । इन्दो । धाराभिः । ओजसा । आ । कलशम् । मधुमान् । सोम । नः । सदः ॥१३२६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1326
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
हे (इन्दो) रस से भिगोनेवाले परमेश्वर ! (देववीतये) दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए (धाराभिः) आनन्द की धाराओं के साथ (ओजसा) वेगपूर्वक (पवस्व) हमारे अन्तःकरण में बहो। हे (सोम) रस के भण्डार ! (मधुमान्) मधुर आप (नः) हमारे (कलशम्) जीवात्मारूप कलश में (आ सदः) आकर स्थित होवो ॥१॥

भावार्थ - परमात्मा के ध्यान में मग्न योगी लोग परमात्मा के पास से अपनी मनोभूमि में झरते हुए आनन्द-रस के झरने का साक्षात् अनुभव करते हैं ॥१॥

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