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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1341
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
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य꣢꣫ एक꣣ इ꣢द्वि꣣द꣡य꣢ते꣣ व꣢सु꣣ म꣡र्ता꣢य दा꣣शु꣡षे꣢ । ई꣡शा꣢नो꣣ अ꣡प्र꣢तिष्कुत꣣ इ꣡न्द्रो꣢ अ꣣ङ्ग꣢ ॥१३४१॥

स्वर सहित पद पाठ

यः꣢ । ए꣡कः꣢꣯ । इत् । वि꣣द꣢य꣢ते । वि꣣ । द꣡य꣢ते । व꣡सु꣢꣯ । म꣡र्ता꣢꣯य । दा꣣शु꣡षे꣢ । ई꣡शा꣢꣯नः । अ꣡प्र꣢꣯तिष्कुतः । अ । प्र꣣तिष्कुतः । इ꣡न्द्रः꣢ । अ꣣ङ्ग꣢ ॥१३४१॥


स्वर रहित मन्त्र

य एक इद्विदयते वसु मर्ताय दाशुषे । ईशानो अप्रतिष्कुत इन्द्रो अङ्ग ॥१३४१॥


स्वर रहित पद पाठ

यः । एकः । इत् । विदयते । वि । दयते । वसु । मर्ताय । दाशुषे । ईशानः । अप्रतिष्कुतः । अ । प्रतिष्कुतः । इन्द्रः । अङ्ग ॥१३४१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1341
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 22; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (यः एक इत्) जो एक ही है और (दाशुषे) आत्मसमर्पण करनेवाले (मर्ताय) मनुष्य को (वसु) श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभाव रूप ऐश्वर्य (विदयते) विशेषरूप से देता है। (अङ्ग) हे भाई ! वह (ईशानः) सबका शासक (अप्रतिष्कुतः) किसी से प्रतीकार न किया गया (इन्द्रः) इन्द्र नामक परमेश्वर है ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। (यः एकः इत्) जो अकेला ही, सब शत्रुओं को (विदयते) विनष्ट कर सके और (दाशुषे) कर देनेवाले (मर्ताय) प्रजाजन को (वसु) ऐश्वर्य (विदयते) प्रदान करे और जो (ईशानः) शासन में समर्थ तथा (अप्रतिष्कुतः) न लड़खड़ानेवाला हो, अङ्ग हे भाई ! वही (इन्द्रः) राजा बनाया जाना चाहिए ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१॥

भावार्थ - पाषाण आदि की मूर्ति परमेश्वर नहीं है, प्रत्युत जो एक, निराकार, स्तोताओं को ऐश्वर्य देनेवाला सर्वाधीश्वर है, वही परमेश्वर नाम से कहा जाता है। इसी प्रकार प्रजाओं द्वारा वही नर राजा रूप में चुना चाहिए जो अकेला भी अनेकों शत्रुओं को हरा सके और अपनी प्रजाओं का रञ्जन करे ॥१॥

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