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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1354
ऋषिः - प्रगाथः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
8
उ꣡ त्वा꣢ मन्दन्तु꣣ सो꣡माः꣢ कृणु꣣ष्व꣡ राधो꣢꣯ अद्रिवः । अ꣡व꣢ ब्रह्म꣣द्वि꣡षो꣢ जहि ॥१३५४॥
स्वर सहित पद पाठउ꣢त् । त्वा꣣ । मन्दन्तु । सो꣡माः꣢꣯ । कृ꣣णुष्व꣢ । रा꣡धः꣢꣯ । अ꣣द्रिवः । अ । द्रिवः । अ꣡व꣢꣯ । ब्र꣣ह्मद्वि꣡षः꣢ । ब्र꣣ह्म । द्वि꣡षः꣢꣯ । ज꣣हि ॥१३५४॥
स्वर रहित मन्त्र
उ त्वा मन्दन्तु सोमाः कृणुष्व राधो अद्रिवः । अव ब्रह्मद्विषो जहि ॥१३५४॥
स्वर रहित पद पाठ
उत् । त्वा । मन्दन्तु । सोमाः । कृणुष्व । राधः । अद्रिवः । अ । द्रिवः । अव । ब्रह्मद्विषः । ब्रह्म । द्विषः । जहि ॥१३५४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1354
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में १९४ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा के विषय में की गयी थी। यहाँ जीवात्मा को प्रोद्बोधन है।
पदार्थ -
हे (अद्रिवः) अविदारणीय बलवाले इन्द्र जीवात्मन् ! (त्वा) तुझे (सोमाः) वीर रस (मदन्तु उ) उत्साहित करें। तू (राधः) दिव्य ऐश्वर्य तथा सफलता को (कृणुष्व) उत्पन्न कर। (ब्रह्मद्विषः) ब्रह्मद्वेषी भावों को (अवजहि) विनष्ट कर दे ॥१॥
भावार्थ - अपने आत्म-बल को पहचान कर मनुष्य को महान् कर्म करने चाहिएँ और विघ्नों को पराजित करना चाहिए ॥१॥
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