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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1484
ऋषिः - बृहद्दिव आथर्वणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
5
वा꣣वृधानः꣡ शव꣢꣯सा꣣ भू꣡र्यो꣢जाः꣣ श꣡त्रु꣢र्दा꣣सा꣡य꣢ भि꣣य꣡सं꣢ दधाति । अ꣡व्य꣢नच्च व्य꣣न꣢च्च꣣ स꣢स्नि꣣ सं꣡ ते꣢ नवन्त꣣ प्र꣡भृ꣢ता꣣ म꣡दे꣢षु ॥१४८४॥
स्वर सहित पद पाठवा꣣वृधानः꣢ । श꣡व꣢꣯सा । भू꣡र्यो꣢꣯जाः । भू꣡रि꣢꣯ । ओ꣣जाः । श꣡त्रुः꣢꣯ । दा꣣सा꣡य꣢ । भि꣣य꣡स꣢म् । द꣣धाति । अ꣡व्य꣢꣯नत् । अ । व्य꣣नत् । च । व्यन꣢त् । वि꣣ । अन꣢त् । च꣣ । स꣡स्नि꣢꣯ । सम् । ते꣣ । नवन्त । प्र꣡भृ꣢꣯ता । प्र । भृ꣣ता । म꣡दे꣢꣯षु ॥१४८४॥
स्वर रहित मन्त्र
वावृधानः शवसा भूर्योजाः शत्रुर्दासाय भियसं दधाति । अव्यनच्च व्यनच्च सस्नि सं ते नवन्त प्रभृता मदेषु ॥१४८४॥
स्वर रहित पद पाठ
वावृधानः । शवसा । भूर्योजाः । भूरि । ओजाः । शत्रुः । दासाय । भियसम् । दधाति । अव्यनत् । अ । व्यनत् । च । व्यनत् । वि । अनत् । च । सस्नि । सम् । ते । नवन्त । प्रभृता । प्र । भृता । मदेषु ॥१४८४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1484
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - अगले मन्त्र में जगदीश्वर का प्रताप वर्णित है।
पदार्थ -
(शवसा) बल से (वावृधानः) अतिशय बढ़ा हुआ, (भूर्योजाः) बहुत प्रतापी, (शत्रुः) दुष्टों का विनाश करनेवाला इन्द्र परमेश्वर (दासाय) यज्ञ आदि सत्कर्मों का विध्वंस करनेवाले को (भियसम्) भय (दधाति) देता है। हे इन्द्र परमात्मन् ! (अव्यनच्च) निर्जीव (व्यनत् च) और सजीव जगत् (सस्नि) आपसे ही संस्नात होता अर्थात् शुद्ध किया जाता है। हे देव ! (ते) आपके द्वारा उत्पन्न (मदेषु) आनन्दों में (प्रभृता) प्रकृष्टरूप से धारण और पुष्ट किये गये सब प्राणी (सन्नवन्त) आपकी स्तुति करते हैं ॥२॥
भावार्थ - अनन्त बलवाले जगदीश्वर से दुष्ट लोग भय खाते हैं और सज्जन उससे पालित-पोषित होकर श्रद्धा से उसकी बारम्बार स्तुति करते हैं ॥२॥
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