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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 15
ऋषिः - शुनः शेप आजीगर्तिः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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ज꣡रा꣢बोध꣣ त꣡द्वि꣢विड्ढि वि꣣शे꣡वि꣢शे य꣣ज्ञि꣡या꣢य । स्तो꣡म꣢ꣳ रु꣣द्रा꣡य꣢ दृशी꣣क꣢म् ॥१५

स्वर सहित पद पाठ

ज꣡रा꣢꣯बोध । ज꣡रा꣢꣯ । बो꣣ध । त꣢त् । वि꣣विड्ढि । विशे꣡वि꣢शे । वि꣣शे꣢ । वि꣣शे । यज्ञि꣡या꣢य । स्तो꣡म꣢꣯म् । रु꣣द्रा꣡य꣢ । दृ꣣शीक꣢म् ॥१५॥


स्वर रहित मन्त्र

जराबोध तद्विविड्ढि विशेविशे यज्ञियाय । स्तोमꣳ रुद्राय दृशीकम् ॥१५


स्वर रहित पद पाठ

जराबोध । जरा । बोध । तत् । विविड्ढि । विशेविशे । विशे । विशे । यज्ञियाय । स्तोमम् । रुद्राय । दृशीकम् ॥१५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 15
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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पदार्थ -
हम उपासक लोग (विशेविशे) सब मनुष्यों के हितार्थ (यज्ञियाय) पूजायोग्य, (रुद्राय) सत्योपदेश प्रदान करनेवाले, अविद्या, अहंकार, दुःख आदि को दूर करनेवाले तथा काम, क्रोध आदि शत्रुओं को रुलानेवाले परमात्मा-रूप अग्नि के लिए (दृशीकम्) दर्शनीय (स्तोमम्) स्तोत्र को [उपहाररूप में देते हैं।] हे (जराबोध) स्तुति को तारतम्यरूप से जाननेवाले अथवा स्तुति के द्वारा हृदय में उद्बुद्ध होनेवाले परमात्मन् ! आप (तत्) उस हमारे स्तोत्र को (विविड्ढि) स्वीकार करो। अथवा इस प्रकार अर्थयोजना करनी चाहिए। उपासक स्वयं को कह रहा है—हे (जराबोध) स्तुति करना जाननेवाले मेरे अन्तरात्मन् ! तू (विशे विशे) मन, बुद्धि आदि सब प्रजाओं के हितार्थ (यज्ञियाय) पूजायोग्य (रुद्राय) सत्य उपदेश देनेवाले, दुःख आदि को दूर करनेवाले, शत्रुओं को रुलानेवाले परमात्मा रूप अग्नि के लिए (तत्) उस प्रभावकारी, (दृशीकम्) दर्शनीय (स्तोमम्) स्तोत्र को (विविड्ढि) कर, अर्थात् उक्त गुणोंवाले परमात्मा की स्तुति कर ॥५॥

भावार्थ - हे जगदीश्वर ! आप सबके पूजायोग्य हैं। आप ही रुद्र होकर हमारे हृदय में सद्गुणों को प्रेरित करते हैं, अविवेक, आलस्य आदिकों को निरस्त करते हैं, अन्तःकरण में जड़ जमाये हुए कामादि शत्रुओं को रुलाते हैं। अतः हम आपको हृदय में जगाने के लिए आपके लिए बहुत-बहुत स्तोत्रों को उपहाररूप में लाते हैं। किसी के स्तोत्र हार्दिक हैं या कृत्रिम हैं, यह आप भले प्रकार जानते हैं। इसलिए हमारे द्वारा किये गये स्तोत्रों की हार्दिकता, दर्शनीयता तथा चारुता को जानकर आप उन्हें कृपा कर स्वीकार कीजिए। हे मेरे अन्तरात्मन् ! तू परमात्मा की स्तुति से कभी विमुख मत हो ॥५॥

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