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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 16
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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प्र꣢ति꣣ त्यं꣡ चारु꣢꣯मध्व꣣रं꣡ गो꣢पी꣣था꣢य꣣ प्र꣡ हू꣢यसे । म꣣रु꣡द्भि꣢रग्न꣣ आ꣡ ग꣢हि ॥१६॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣡ति꣢꣯ । त्यम् । चा꣡रु꣢꣯म् । अ꣣ध्वर꣢म् । गो꣣पीथा꣡य꣢ । प्र । हू꣣यसे । मरु꣡द्भिः꣢ । अ꣣ग्ने । आ꣢ । ग꣣हि ॥१६॥


स्वर रहित मन्त्र

प्रति त्यं चारुमध्वरं गोपीथाय प्र हूयसे । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥१६॥


स्वर रहित पद पाठ

प्रति । त्यम् । चारुम् । अध्वरम् । गोपीथाय । प्र । हूयसे । मरुद्भिः । अग्ने । आ । गहि ॥१६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 16
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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पदार्थ -
(त्यम्) उस हमारे द्वारा किये जाते हुए (चारुम्) श्रेष्ठ (अध्वरम्) हिंसा, अधर्म आदि दोषों से रहित उपासनायज्ञ या जीवनयज्ञ के (प्रति) प्रति (गोपीथाय) विषयों में भटकती हुई इन्द्रिय-रूप गौओं की रक्षा के लिए, अथवा हमारे श्रद्धारस-रूप सोमरस के पान के लिए (प्र हूयसे) आप बुलाये जा रहे हो। (अग्ने) हे ज्योतिर्मय परमात्मन् ! आप (मरुद्भिः) प्राणों द्वारा अर्थात् हमसे की जाती हुई प्राणायाम-क्रियाओं द्वारा (आ गहि) हमारे यज्ञ में आओ ॥६॥

भावार्थ - हे परमात्मन् ! जैसे पवनों से प्रज्वलित यज्ञाग्नि नाना ज्वालाओं से नृत्य करती हुई सी यज्ञवेदि में हमारे सम्मुख उपस्थित होती है, वैसे ही हमारे प्राणायामरूप पवनों से प्रज्वलित किये हुए आप हमारे जीवनयज्ञ या उपासनायज्ञ में आओ, और मन, वाणी, चक्षु आदि इन्द्रियों को विषयों से निरन्तर बचाते हुए हमारे श्रद्धारस का रिझकर पान करो ॥६॥

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