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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 153
ऋषिः - शुनः शेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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रे꣣व꣡ती꣢र्नः सध꣣मा꣢द꣣ इ꣡न्द्रे꣢ सन्तु तु꣣वि꣡वा꣢जाः । क्षु꣣म꣢न्तो꣣ या꣢भि꣣र्म꣡दे꣢म ॥१५३॥

स्वर सहित पद पाठ

रे꣣व꣡तीः꣢ । नः꣣ । सधमा꣡दे꣢ । स꣣ध । मा꣡दे꣢꣯ । इ꣡न्द्रे꣢꣯ । स꣣न्तु । तुवि꣡वा꣢जाः । तु꣣वि꣢ । वा꣣जाः । क्षुम꣡न्तः꣢ । या꣡भिः꣢꣯ । म꣡दे꣢꣯म ॥१५३॥


स्वर रहित मन्त्र

रेवतीर्नः सधमाद इन्द्रे सन्तु तुविवाजाः । क्षुमन्तो याभिर्मदेम ॥१५३॥


स्वर रहित पद पाठ

रेवतीः । नः । सधमादे । सध । मादे । इन्द्रे । सन्तु । तुविवाजाः । तुवि । वाजाः । क्षुमन्तः । याभिः । मदेम ॥१५३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 153
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4;
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पदार्थ -
(नः) हमारी (रेवतीः) प्रशस्त ऐश्वर्यवाली प्रजाएँ (सधमादे) जिसके साथ रहते हुए लोग आनन्द प्राप्त करते हैं, ऐसे (इन्द्रे) परमैश्वर्यशाली परमात्मा और राजा के आश्रय में (तुविवाजाः) बहुत बल और विज्ञान से सम्पन्न (सन्तु) होवें, (याभिः) जिन प्रजाओं के साथ (क्षुमन्तः) प्रशस्त अन्नादि भोग्य सामग्री से सम्पन्न, प्रशस्त निवास से सम्पन्न और प्रशस्त कीर्ति से सम्पन्न हम (मदेम) आनन्दित हों ॥९॥

भावार्थ - सब प्रजाजनों को चाहिए कि वे इन्द्रनामक परमात्मा और राजा के मार्गदर्शन में सब कार्य करें, जिससे वे रोग, भूख, अकालमृत्यु आदि से पीड़ित न हों, प्रत्युत सब सात्त्विक खाद्य, पेय आदि पदार्थों को और बल, विज्ञान आदि को प्राप्त करते हुए समृद्ध होकर अधिकाधिक आनन्द को उपलब्ध करें ॥९॥

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